SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 94] दिशवकालिकसूत्र तेउकातिए जीवे ण सदहति जो जिणेहि पण्णते / अणभिगत-पुण्ण-पायो ण सो उट्ठावणाजोग्गो // 3 // वाउक्कातिए जोवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते / प्रणभिगत-पुण्ण-पावो ण सो उद्धावणाजोग्गो // 4 // वणस्सतिकातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते। प्रणभिगत-पुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो // 5 // तसकातिए जोवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते / अणभिगत-पुण्ण-पावो ण सो उद्रावणाजोग्गो // 6 // पुढविक्कातिए जीवे सदहतो, जो जिणेहि पण्णते। अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उवट्ठावणे जोग्गो // 7 // पाउक्कातिए जोवे सद्दहती जो जिणेहि पण्णत्ते / अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उवट्ठावणे जोग्गो // 8 // तेउक्कातिए जोवे सद्दहति जो जिणेहि पण्णते / अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उवट्ठावणे जोग्गो // 9 // वाउक्कातिय जीवे सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते / अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उवट्ठावणे जोग्गो // 10 // वणस्सतिकातिए जीवे सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते / अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उबट्ठावणे जोग्गो // 11 // तसकातिए जोवे सद्दहतो जो जिणेहि पण्णते / अभिगत-पुण्ण-पावो सो हु उवट्ठावणे जोग्गो।। 12 // *] [जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित पृथ्वीकायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्य-पाप से अनभिज्ञ होने के कारण (महावतों के) उपस्थापन (आरोहण) के योग्य नहीं होता / / 1 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित अप्कायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्यपाप से अनभिज्ञ होने के कारण उपस्थापन के योग्य नहीं होता / / 2 / / जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित तेजस्कायिक जीवों (के अस्तित्व) में श्रद्धा नहीं करता, वह पुण्यपाप से अनभिगत होने के कारण उपस्थापन के योग्य नहीं होता / / 3 / / * कोष्ठक के अन्तर्गत अंकित ये 12 गाथाएँ कई आचार्य मूत्र (मूल) रूप में मानते हैं, कई इन गाथाओं को प्राचीनवृत्तिगत मानते हैं, ऐसा अगस्त्यसिंह स्थविर का मत है।-सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy