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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] आदि तरल पदार्थ रस कहलाते हैं। उनके विकृत हो जाने पर उनमें उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे जीव 'रसज' कहलाते हैं / (5) संस्वेदज-पसीने के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जीव संस्वेदज होते हैं, जैसे जू, खटमल आदि / सम्मूच्छिम-शीत, उष्ण आदि बाहरी कारणों के संयोग से या इधर-उधर के आसपास के परमाणुगों या वातावरण से मातृ-पितृ संयोग के विना ही पैदा हो जाते हैं, वे सम्मूच्छिम या सम्मूच्छिनज कहलाते हैं। सम्मूच्छिन कहते हैं-घना होने, बढ़ने या फैलने की क्रिया को / जो जीव गर्भ के विना ही उत्पन्न होते, बढ़ते और फैलते हैं, वे सम्मूच्छिनज कहलाते हैं, जैसे टिड्डी, पतंगा, चींटी, मक्खी आदि। (6) उद्भिज्ज-पृथ्वी को फोड़ (भेद) कर जो जीव पैदा होते हैं, वे उद्भिज्ज कहलाते हैं, जैसे-पतंगा, खंजरीट या शलभ आदि / (7) औपपातिक--गर्भ और सम्मूर्छन से भिन्न देवों और नारकों के जन्म को उपपात कहते हैं, उससे उत्पन्न होने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं / देव शय्या में और नारक कुम्भी में स्वयं उत्पन्न होते हैं। उपपात का अर्थ होता हैअकस्मात् घटित होने वाला अचानक प्रा पड़ने वाला। देव और नारक जीव एक ही मुहूर्त में पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए अकस्मात् उत्पन्न होने के कारण इन्हें प्रोपपातिक कहा जाता है / 36 सम्वे पाणा परमाहम्मिया : विश्लेषण-इस पंक्ति का शब्दश: अर्थ होता है-- सभी प्राणी परम-धार्मिक हैं 1 किन्तु धार्मिक शब्द तो अहिंसादि धर्मों के पालन करने वाले के अर्थ में रूढ़ है, अतः यहाँ टीकाकार और चर्णिकार इसका अभिप्रायार्थ स्पष्ट करते हैं-धर्म का अर्थ यहाँ स्वभाव है। परम अर्थात् सुख जिनका धर्म-स्वभाव है, वे परम-धार्मिक हैं / अर्थात्--समस्त प्राणी सुखाभिलाषी हैं, सुखशील हैं / यहाँ 'परमा' शब्द में 'अतः समृद्धयादौ वा' इस हैमसूत्र से 'म' कार दीर्घ हुआ है।" षड्जीवनिकाय पर अश्रद्धा-श्रद्धा के परिणाम [पुढविक्कातिए जीवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते। अणमिगत-पुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणा जोग्गो // 1 // आउक्कातिए जोवे ण सद्दहति जो जिणेहि पण्णत्ते / अणमिगत-पुण्ण-पावो ण सो उट्ठावणाजोग्गो // 2 // 39. (क) रसाज्जाता रसजा:---तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयो अतिसूक्ष्मा भवन्ति / -हारि. वृत्ति, पत्र 141 (ख) संस्वेदाज्जाता इति संस्वेदजा-मत्कूण-यूका-शतपदिकादयः। -वही, पत्र 141 (ग) सम्मूछनाज्जाता सम्मूर्च्छनजा:-शलभ-पिपीलिका-मक्षिका-शालूकादयः। -वही, पत्र 141 (छ) उब्भियानाम भूमि भेत्तूणं पंखालया सत्ता उप्पज्जति। --जिन. चू., पृ. 140 उद्भेदाज्जन्म येषां ते उद्भेदाः अथवा उद्भेदन मुद्भित्, उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिज्जा:--पतंगखंजरीट-पारिप्लवादयः। -हारि. वृत्ति, पत्र 141 (ङ) उपपाताज्जाता उपपातजाः, अथवा उपपाते भवा औषपातिका-देवा नारकाश्च / --हारि. वृत्ति, पत्र 141 40. (क) 'सव्वे पाणा परमाहम्मिया'-परमं पहाणं, तं च सुहं। अपरमं ऊणं, तं पुण दुःखं / धम्मो सभावो। परमो धम्मो जेसि ते परमधम्मिता / यदुक्तम्-सुखस्वभावाः। --अगस्त्यचणि, पृ 77 (ख) सुखधर्माण:-सुखाभिलाषिण इत्यर्थः / —हारि. वृत्ति, पत्र 142 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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