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________________ 92] [दशकालिकसूत्र दृष्टि से 'अणेगे और 'बहवे' इन दो विशेषणों का प्रयोग किया गया। इनमें श्वासोच्छ्वास आदि प्राण विद्यमान होते हैं, इसलिए 'पाणा' (प्राणी) विशेषण प्रयुक्त किया गया है / 35 त्रस के प्रकार-बस दो प्रकार के होते हैं-गतित्रस और लब्धित्रस। जिन जीवों में अभिप्रायपूर्वक गति करने की शक्ति होती है, वे लब्धित्रस कहलाते हैं और जिन जीवों की गति अभिप्रायपूर्वक नहीं होती, केवल गतिमात्र होती है, वे गतित्रस कहलाते हैं। स्थानांगसूत्र में तीन प्रकार के त्रस बताए हैं, उनमें अग्नि और वायु को गतित्रस और द्वीन्द्रियादि उदार वस प्राणियों को लब्धित्रस कहा गया है / प्रस्तुत सूत्र में लब्धित्रस के लक्षण बताए हैं। 36 त्रस के लक्षण-शास्त्रकार ने मूल में ही 'मिक्कत' पद से लेकर 'आगइ-गइ-विनाया' पद तक त्रसजीवों के लक्षण बतलाए हैं। तात्पर्य यह है कि सजीवों का यह स्वभाव होता है कि वे स्वतः प्रेरणा से सम्मुख आते हैं, पीछे भी हट जाते हैं, कई त्रसजीव अपने शरीर को सिकोड़ लेते हैं, कई फैला देते हैं। कई त्रसजीव प्रापत्ति या कष्ट प्रा पड़ने पर अथवा अमुक प्रयोजनवश जोर-जोर से चिल्लाते हैं, आवाज करते हैं, भौंकते हैं, गर्जते या गुर्राते या चिघाड़ते हैं। भयभीत होने पर इधरउधर स्वयं प्रेरणा से भागदौड़ भी करते हैं। कुत्ते आदि कई पशु भूल-भटक गए हों, दूर चले गए हों तो भी लौट कर अपने मालिक के यहाँ आ जाते हैं। कई पशुओं में यह विशिष्ट ज्ञान होता है कि हम अमुक जगह जा रहे हैं या अमुक जगह से पाये हैं। यदि उन्हें कोई जबरन पीछे हटाता या आगे भगाता है तो वे यह जानते हैं कि हमें पीछे हटाया या प्रागे भगाया जा रहा है। प्रोघसंज्ञावश कई त्रस धूप से छाया में और छाया से अरुचि होने पर धूप में स्वतः चले जाते हैं / 37 / उत्पत्ति की दृष्टि से सजीवों के प्रकार--शास्त्रकार ने मूल में अण्डज आदि कई प्रकार त्रसजीवों की उत्पत्ति की अपेक्षा से दिये हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है-(१) अण्डज-अण्डे से पैदा होने वाले मोर, कबूतर आदि / (2) पोतज-जिन पर कोई प्रावरण लिपटा हुया नहीं होता, जो सीधे शिशुरूप में माता के गर्भ से उत्पन्न होते हैं। जैसे हाथी, चर्मजलौका आदि। (3) जरायुज-जरायु का अर्थ गर्भवेष्टन या झिल्ली होता है जो शिशु को प्रावृत किये रहती है। गर्भ से जरायुवेष्टित दशा में निकलने वाले जरायुज होते हैं, जैसे-गाय, भैंस, मनुष्य प्रादि / 38 (4) रसज-दूध, दही, घी, मट्ठा 35. (क) 'अणेगा'-अनेकभेदा बेइंदियादतो। 'बढे' इति बहुभेदा जाति-कुलकोडि-जोणीपमुहसतसहस्सेहि पुणरवि संखेज्जा। ___ -अगस्त्यचूणि, पृ. 77 (ख) अणेगे नाम एक्कमि चेव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा। जिन. चूणि, पृ. 139 (ग) 'प्राणा-उच्छ्वासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिनः।' हारि. वृत्ति, पत्र 141 36. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी) पृ. 128, (ख) तिविहा तसा प.तं. तेउकाइया वाउकाइया उराला तसा पाणा / -स्थानांग, स्थान 31326 37. दशवे. (आचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) पृ. 67 38. (क) अंडसंभवा अंडजा जहा-हंसमयूरायिणो।'—जिन. चूणि, पृ. 139 / (ख) पोता एव जायन्त इति पोतजा:"ते च हस्तीवल्गुली-चर्मजलौकादयः / हा. टी., प. 141 (ग) जरायुवेष्टिता जायन्ते इति जरायुजाः,-गो-महिष्यजाविकमनुष्यादयः / -वही, पृ. 141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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