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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [91 शस्त्रपरिणत अकाय इसी प्रकार तालाब आदि के जल के लिए कुए आदि का जल स्वकायशस्त्र है परन्तु ऐसा जल शस्त्रपरिणत होने पर भी व्यवहार से अशुद्ध होने के कारण ग्राह्य नहीं है / जल, द्राक्षा, लवंग, चावल, पाटा, चूना प्रादि वस्तुएं परकायशस्त्र हैं / एक स्थान (कुए) के जल के साथ तालाब आदि (अन्य स्थान) का जल और अग्नि, चावल, आटा, चूना, मिट्टी आदि मिलने पर उभयकाय शस्त्र हैं / जल का वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श बदल जाना उसका शस्त्रपरिणत हो जाना है। इस प्रकार का शस्त्रपरिणत जल या अग्निशस्त्र परिणत उष्ण जल अचित्त अथवा प्रासुक हो जाता है, जो अहिंसक साधुवर्ग के लिए ग्राह्य है। शस्त्रपरिणत तेजस्काय---तेजस्काय के शस्त्र ये हैं-कंडे की अग्नि के लिए तण को अग्नि स्वकायशस्त्र है. परन्त ऐसी स्वकायशस्त्रपरिणत अग्नि व्यवहार से अशुद्ध होने के कारण तथा भगवदाज्ञा न होने से साधुवर्ग के लिए ग्राह्य नहीं है / जल, मिट्टी आदि अग्नि के लिए परकायशस्त्र हैं / उष्णजल आदि उभयकायशस्त्र हैं। गर्म खिचड़ी, भात आदि उष्ण आहार ; साग, दाल, चावलों का मांड आदि उष्ण पान; आग में तपो हुई ईंट, बालू आदि शस्त्रपरिणत अचित्त अग्निकाययुक्त हैं। ये सब अग्नि के संयोग से निष्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें अचित्त अग्निकाय शब्द को प्रवृत्ति होती है / साधुवर्ग के लिए ऐसे शस्त्रपरिणत अचित्त अग्निकाय से युक्त आहारादि ग्राह्य होते हैं / शस्त्रपरिणत वायुकाय-पूर्व प्रादि दिशा के वायु के लिए, पश्चिम आदि दिशा का वायु-स्पर्श स्वकायशस्त्र है, अग्नि प्रादि परकायशस्त्र हैं और उभयकाय शस्त्र अग्नि, सूर्यताप आदि से तपा हुमा वायु है / शस्त्रपरिणत वनस्पतिकाय -- अमुक वनस्पति के लिए लकड़ी, सूखी घास, आदि स्वकायशस्त्र हैं, लोह, पत्थर, अग्नि सूर्यताप, उष्ण या शस्त्रपरिणत जल आदि वनस्पति के लिए परकायशस्त्र हैं। फरसा (कुल्हाड़ो), दात्र (दरांती) आदि उभय कायशस्त्र हैं / जो शस्त्रपरिणत वनस्पति है, वह एषणीय और कल्पनीय हो तो दाता के द्वारा दिये जाने पर साधुसाध्वी के लिए ग्राह्य है / 34 निष्कर्ष यह है कि पृथ्वीकाय अादि पांचों स्थावर जीवनिकायों के शस्त्रपरिणत हो जाने पर जीवच्युत हो जाने से पृथ्वी आदि पांचों का उपयोग समिति, एषणा और यतना से शुद्ध होने पर पूर्वोक्त (अमुक) मर्यादा में साधुसाध्वी के द्वारा किया जा सकता है / इससे उनके अहिंसावत और संयम में कोई आँच नहीं पाती। त्रसजीवः स्वरूप, प्रकार और व्याख्या प्रस्तुत में सजीवों के लिए तीन विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं -अणेगे बहवे, पाणा / इनका प्राशय यह है-त्रसजीवों के द्वीन्द्रिय आदि अनेक भेद हैं और उन द्वीन्द्रिय आदि प्रत्येक कोटि के सजीव के जाति, कुलकोटि, योनि इत्यादि की अपेक्षा से लाखों भेद हैं। इसलिए उन द्वीन्द्रियादि अनेक भेदों के पुन: बहुत से अर्थात् संख्यात भेद हैं / इस 34. (क) दशवकालिक (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 209 से 218 तक (ख) वायुकाय की शस्त्रपरिणति के लिए देखिये--भगवती सूत्र शतक 2, उ.१ वायु-अधिकार / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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