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________________ 90] [दशवकालिकसूत्र उपयोग भी कैसे कर सकेंगे? और इनका उपयोग किये बिना उनका जीवन कैसे टिक सकेगा तथा संयम का पालन कैसे हो सकेगा? इन्हीं ज्वलन्त प्रश्नों को अन्यतीथिक लोग आक्षेपरूप में प्रस्तुत करते हैं,-"जल में जन्तु है, स्थल में जन्तु है, पर्वत के शिखर पर जन्तु है, यह सारा लोक जन्तुसमूह से व्याप्त है, ऐसी स्थिति में भिक्षु कैसे अहिंसक रह सकेगा?'' इन्ही प्रश्नों का समाधान करने के लिए शास्त्रकार ने प्रत्येक स्थावर जीवनिकाय का परिचय देने के साथ-साथ एक पंक्ति अंकित कर दी है-'अन्नस्थ सत्थपरिणएण'। इसका शाब्दिक अनुवाद होगा-शस्त्रपरिणत (पृथ्वी आदि) को छोड़ कर-वर्जन कर, या शस्त्रपरिणत के सिवाय, किन्तु इसका भावानुवाद होगा-शस्त्रपरिणत होने से पूर्व / तात्पर्य यह है कि जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति शस्त्रपरिणत-शस्त्र के द्वारा खण्डित-विदारित-जीवच्युत हो जाएगी, उसके प्रचित्त (जीवरहित प्रासुक) हो जाने से, उनका उपयोग करने में साधु-साध्वी को हिंसा नहीं लगेगी, और संयम का सम्यक प्रकार से पालन करते हुए जीवननिर्वाह भी हो जाएगा। 'शस्त्र-परिणत' की व्याख्या--जिससे प्राणियों का घात हो, उसे शस्त्र कहते हैं / वह शस्त्र दो प्रकार का है-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र / पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के प्रति मन के दुष्ट परिणाम करना भावशस्त्र है / द्रव्यशस्त्र तीन प्रकार के हैं-स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और उभयकायशस्त्र / इन तीनों में से किसी भी द्रव्यशस्त्र से पृथ्वी आदि परिणत हो जाए तो वह अचित्त हो जाती है। शास्त्र-परिणत पृथ्वीकाय---अपने से भिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाली पृथ्वी (मिट्टी पादि) ही पृथ्वीकाय के जीवों के लिए स्वकायशस्त्र है। जल, अग्नि, पवन, सूर्यताप, पैरों से रोंदना आदि पृथ्वी कायिक जीवों के लिए परकायशस्त्र हैं। इन परकायशस्त्रों से मिट्टी के जीवों का घात हो जाने से वे अचित्त हो जाते हैं / स्वकाय (मिट्टी) और परकाय (जल आदि) दोनों संयुक्त रूप से घातक हों तो उन्हें उभयकायशस्त्र कहा जाता है / जैसे—काली मिट्टी जल में मिलने पर जल और सफेद मिट्टी दोनों के लिए शस्त्र हो जाती है। इस प्रकार शस्त्रपरिणत पृथ्वी जीवरहित होने से अचित्त होती है। उस पर आहार विहारादि क्रियाएं करने से साधु-साध्वियों के अहिंसा महाव्रत की क्षति नहीं होती।33 31. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 280 से 216 तक (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) प. 63 जले जन्तुः स्थले जन्तु:, जन्तु : पर्वतमस्तके / जन्तुमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसक:?॥ -प्रमेयकमलमाण्ड में उद्धत 32. (क) अण्णत्थसद्दो परिवजणे वट्टति / –अगस्त्य. चूणि पृ. 74 (ख) अन्यत्र शस्त्रपरिणताया:-शस्त्रपरिणतां पथिवीं विहाय-परित्यज्य अन्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थ: / -हारि. वृत्ति, पत्र 138-139 (ग) दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.) प.६३ (घ) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 209, 212 33. (क) दशवकालिक नियुक्ति गा. 231, हारि वृत्ति. पत्र 139, जिन. चणि पृ. 137 (ख) दशव. (आ. आत्मारामजी म.) पृ. 63, दशवै. (मुनि नथमलजी) पृ. 124 (ग) दशवकालिक (प्राचारमणि मंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 208 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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