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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [89 ईख आदि / स्कन्धबोज-स्कन्ध (थुड़) ही जिनका बीज हो, वे स्कन्धबीज कहलाते हैं। जैसे बड़, पीपल, थूहर, कपित्थ (कैथ) आदि / बोजरुह-बीज से उगने वाली वनस्पति या जिसके बीज में ही बीज रहे वह वनस्पति बीजरुह कहलाती है / जैसे-चावल, गेहूँ आदि / 28 ___ सम्मूच्छिम-जो प्रसिद्ध बीज के बिना, केवल पृथ्वी, वर्षा (वृष्टि जल) आदि कारणों से दग्धभूमि में भी उत्पन्न हो जाती है, ऐसी पद्मिनी, तृण अादि को सम्मूच्छिमवनस्पति कहते हैं / तृणःघासमात्र को तृण कहते हैं। तण शब्द के द्वारा दूब, काश, नागरमोथा, कुश, दर्भ, उशीर आदि सभी प्रकार के तृणों का ग्रहण किया गया है / लता---पृथ्वी पर या किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर उसके सहारे से ऊपर फैल जाने वालो वनस्पति को लता कहते हैं, इसे बेल, वल्लरी आदि भी कहते हैं। लता शब्द के द्वारा चंपा, जाई, जूही, वासन्ती आदि सभी प्रकार की लताओं का ग्रहण किया गया है / यहाँ तक सभी प्रकार की वनस्पतियों का दिग्दर्शन कराया गया है / 26 वणस्सइकाइया सबीया : तात्पर्य प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' का उल्लेख किया गया है, वह ऊपर बताये गए वनस्पति भेदों के अतिरिक्त सूक्ष्म, बादर आदि, तथा बीजपर्यन्त वनस्पति के दस प्रकारों का ग्रहण करने के लिए किया गया है, इसीलिए 'वणस्सइकाइया' के साथ 'सबीया' विशेषण दिया गया है। यही कारण है कि 'सबीया' का अर्थ-'बीजयुक्त वनस्पति' न करके (मूल से लेकर) बोजपर्यन्त किया है। अर्थात्-सबीज शब्द से यहाँ-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज, वनस्पति के इन दसों भेदों का ग्रहण हो जाता है। 30 पंच स्थावरों का उपयोग और अहिंसामहावत की सुरक्षा-यहाँ एक ज्वलन्त प्रश्न उपस्थित होता है कि जब पृथ्वी ग्रादि पांचों जीवनिकाय, जीवों के पिण्डरूप हैं, तब अहिंसामहाव्रती साधुसाध्वी पृथ्वी पर गमनागमन, शयन, उच्चार-प्रस्रवण, आदि क्रियाओं में पृथ्वी की हिंसा होने से ये क्रियाएं कैसे कर सकेंगे ? जीवों के पिण्डरूप जल का उपयोग कैसे कर सकेंगे? अग्नि-संयोग से निष्पन्न उष्ण आहार-पानी का उपयोग कैसे कर सकेंगे? अंगसंचालन, श्वासोच्छवास आदि क्रियानों में वायु का सेवन कैसे कर सकेंगे? और शाकभाजी, पक्के फल, घास आदि के रूप में वनस्पति का 28. (क) अगं बीजं येषां ते अग्रबीजा:-कोरण्टकादयः / मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा-उत्पलकन्दादयः / पर्व बीज येषां ते पर्वबीजा-इक्ष्वादयः। स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजा:---शल्लक्यादयः। बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहा-शाल्यादयः / -हारि. बृत्ति, पत्र 138-139 29. (क) "मम्मूर्छन्तीति सम्मूच्छिमा:- प्रसिद्धबीजाभावेन पृथिवी-वर्षादि-समुद्भवास्तृणादयः / न चैते न सम्भवन्ति, दग्धभूमावपि सम्भवात् / " -हारि. वृत्ति, पृ. 140 (ख) 'पउमिणिमादी उदगपुढवि-सिणेह-संमुच्छणा संमुच्छिमा।' -अग. चूणि, पृ. 75 (ग) तत्थ तणग्गहणेण तणभेया गहिया / लतागहणेण लताभेदा गहिया / -जिन. चूणि, पृ. 138 30. (क) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, प. 220 (ख) सबीयग्रहण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति, तंजहा मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य / पत्तं पुप्फे य फले बीए दसमे य नायब्बा // -जिन. चूर्णि, पृ. 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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