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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [85 अकायिकजीव-जल ही जिनका काय अर्थात् शरीर है, उन्हें अप्काय या अप्कायिक कहते हैं / शुद्धोदक, प्रोस, हरतनु, महिका (धूंवर), ठार, हिम, प्रोला, आदि सब अप्काय (सचित्त जल) के प्रकार हैं / पार्थिव और आकाशीय दोनों प्रकार के जलों को केवलज्ञानी वीतराग नभु ने सचित्त कहा है। आगम प्रमाण के अतिरिक्त अनुमान प्रमाण से भी जल की सचेतनता सिद्ध होती है—(१) भूमिगत जल सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई भूमि में सजातीय--स्वभाव वाला जल उत्पन्न होता है, जैसे—मेंढक / भूमि को खोदने से जैसे मेंढक निकलता है, जो सचेतन होता है, उसी प्रकार पानी भी निकलता है, अतएव वह भी सचेतन है / आकाशीय जल भी सचित्त है, क्योंकि मेघादि विकार होने पर जल स्वयं ही गिरने लगता है, जैसे-मछली आदि / 13 वैज्ञानिकों ने माइक्रोस्कोप यंत्र प्रादि से वर्तमान युग में पानी की एक बून्द में हजारों त्रस जीव रहे हुए हैं, यह सिद्ध कर दिया है। तेजस्कायिक जीव-अग्नि (तेज) उष्ण लक्षण वाली प्रसिद्ध है / वही जिनका काय-शरीर हो, उन जीवों को तेजस्काय या तेजस्कायिक कहते हैं। उनके अनेक प्रकार हैं-- अग्नि, अंगारे, मुमुर (चिनगारी), अचि, ज्वाला, उल्कापात, विद्युत् प्रादि / तेजस्काय को भी भगवान् ने सजीव कहा है, इसलिए पागमप्रमाण से तेजस्काय में सचेतनता सिद्ध होती है। अनुमान प्रमाण से भी इसकी सचेतनता सिद्ध होतो है—(१) तेजस्काय सजीव हैं, क्योंकि ईन्धन आदि आहार देने से उसकी वृद्धि और न देने से उसकी हानि (मन्दता) होती है, जैसे—जीवित मनुष्य का शरीर / अर्थात्-जीवित मनुष्य का शरीर पाहार देने से बढ़ता और न देने से घटता है, अत: वह सचेतन है। इसी प्रकार तेजस्काय (अग्निकाय) भी ईन्धन देने से बढ़ता और न देने से घटता है, इसलिए वह भी सचित्त है। (2) अंगार आदि को प्रकाशशक्ति जीव के संयोग से ही उत्पन्न होती है, क्योंकि वह देहस्थ है। जोजो देहस्थ प्रकाश होता है, वह-वह आत्मा के संयोग के निमित्त से होता है। जैसे- जुगनू के शरीर का प्रकाश / जुगनू के शरीर में प्रकाश तभी तक रहता है, जब तक उसके साथ आत्मा का संयोग रहता है। इसी प्रकार अंगार आदि का प्रकाश भी तभी तक रहता है, जब तक उसमें प्रात्मा रहे / 14 वायुकायिक जीव-भगवान् ने अपने केवलज्ञानालोक में देखकर वायुकाय को सचित्त कहा है, इसलिए प्रागमप्रमाण से वायुकाय की सजीवता सिद्ध है। अनुमान-प्रमाण से भी देखिये(१) वायु सचेतन है, क्योंकि वह दूसरे की प्रेरणा के बिना अनियतरूप से तिर्यगगमन कर तरूप से तिर्यग्गमन करता है, जैसे मृग / मृग अन्य की प्रेरणा के विना ही तिर्यग् गमन करता है, अतः वह सजीव है, इसी प्रकार वायु 13. (क) अापो-द्रवाः प्रतीता एव, ता एव कायः शरीरं येषां ते अप्कायाः, अकाया एव अप्कायिकाः / ____ --हारि. वृत्ति, पत्र 138 (ख) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 209 14. (क) 'तेजः उष्णलक्षणं प्रतीतं, तदेव कायः-शरीरं येषां ते तेजस्कायाः, तेजस्काया एव तेजस्कायिकाः / ' हारि. वृत्ति, पत्र 138 (ख) दशवकालिक (प्राचारमणिमंजूषा टोका) भा. 1, पृ. 212-213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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