SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [दशवकालिकसूत्र भी अन्य से प्रेरित हुए विना तिर्यग्गमन करता है, इसलिए वह सचेतन है / इस प्रकार अनुमानप्रमाण से भी वायुकाय की सचेतता सिद्ध होती है / 15 / वायु चलनधर्मा प्रसिद्ध है। वही जिनका काय-शरीर है, वे जीव वायुकाय या वायुकायिक कहलाते हैं / इनके उत्कलिका वायु, मण्डलिका वायु, घनवायु, तनुवायु, गुजावायु, शुद्धवायु, संवर्तक वायु आदि प्रकार हैं / ' वनस्पतिकायिक जीव-वनस्पति लता आदि के रूप में प्रसिद्ध है। वही (वनस्पति ही) जिनका काय-शरीर है, वे जीव वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। बीज, अंकुर, तृण, कपास, गुल्म, गुच्छ, वृक्ष, शाक, हरित, लता, पत्र, पुष्प, फल, मूल, कन्द, स्कन्ध आदि बनस्पतिकायिक जीवों के प्रकार हैं। वनस्पतिकाय को सजीवता सर्वज्ञ आप्तपुरुषों के वचनों से (आगम प्रमाण से) सिद्ध है / अनुमान प्रमाण से भी इसकी सजीवता देखिये-- वनस्पति सचित्त है, क्योंकि उस में बाल्य, यौवन, वृद्धत्व आदि अवस्थाएँ, तथा छेदन-भेदन करने से म्लानता आदि सचेतन के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे-जीवित मानवशरीर / जैसे-जीवित मानव का शरीर, बाल्यादि अवस्थाओं तथा छेदन-भेदन आदि करने से म्लानता आदि के कारण सचेतन है, वैसे बनस्पतिकाय भी सचेतन है। वर्तमान युग में जीवज्ञानशास्त्री प्रो. जगदीशचन्द्र बोस ने प्रयोग करके वनस्पति की सजीवता सिद्ध कर दी है / 17 त्रसकायिक जीव---त्रसनशील को बस कहते हैं, अथवा जो स्वतःप्रेरित (स्वतंत्ररूप से) गमनागमन करता हो, वह त्रस कहलाता है। त्रस ही जिनका काय हो, अथवा जिनमें द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक हों या जिनमें छह द्रव्यप्राणों से लेकर 10 प्राणों तक हों, वे त्रसकाय या असकायिक कहलाते हैं / कृमि, शंख, कुत्थु, चींटी, मक्खी, मच्छर, भौंरा, आदि तथा मनुष्य, तिर्यञ्च (पशुपक्षी आदि), देव और नारक जीव१८ त्रसकायिक हैं। __ त्रस जीवों की सचेतनता आबालप्रसिद्ध एवं प्रत्यक्षसिद्ध है / प्रागम प्रमाण से भी सिद्ध है। यहाँ भी 'से जे पुण इमे अणेगे' कहकर त्रसकाय का प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होना सिद्ध किया है। जो द्वीन्द्रिय अादि के भेद से अनेक प्रकार के, एक-एक जाति में बहुत-से, अथवा भिन्न-भिन्न योनि वाले, प्रातप (धूप, गर्मी) आदि से पीड़ित होने पर त्रास (उद्वेग) पाने वाले अथवा स्वतःप्रेरणा से छायादार शीतल और निर्भयस्थान में चले जाने वाले, एवं व्यक्त चेतनावान् जीव हैं, वे त्रस कहलाते हैं।" कहीं-कहीं पृथ्वीकाय आदि के सूत्रोक्त क्रम का कारण भी स्पष्ट किया गया है / 2. 15. दशवकालिक प्राचारमणिमंजूषा टीका, भा., पृ. 215 16, (क) वायुश्चलनधर्मा प्रतीत एव, स एव कायः-शरीरं येषां ते वायुकायाः, वायुकाया एव वायुकायिकाः / -हारि. वृत्ति, पत्र 138 (ख) दशवै. (मुनिनथमलजी), पृ. 123, (ग) प्रज्ञापना, पद ? 17. दशवै. प्राचारमणिमंजूषा टीका, भा. 1, पृ. 217 18. हारि. वृत्ति, पत्र 138 / 19. दशवकालिक, प्राचारमणिमंजुषा टीका भाग 1, पृ. 222 20. दशकालिक (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), 5.61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy