SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [दशवकालिकसूत्र धम्मपन्नत्ती : धर्मप्रज्ञप्ति : अर्थ-जिससे श्रुत-चारित्ररूप धर्म अथवा सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूप धर्म जाना जाए अथवा जिसमें धर्म का प्रज्ञपन किया गया हो, वह धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययन है।' अहिज्जि:-अध्ययन करना--पढ़ना, पाठ करना, सुनना और चिन्तन करना--स्मरण करना / 'में' शब्द का प्राशय-प्रस्तुत में 'मे' शब्द अपनी आत्मा के लिए, स्वयं के लिए प्रयुक्त हुआ है / इस अर्थ के अनुसार इस वाक्य का अनुवाद होगा-'इस धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययन का पठन मेरेप्रात्मा के लिए श्रेयस्कर है।" . पृथ्वीकायिक से त्रसकायिक तक : लक्षण, अर्थ प्रकार तथा सचेतनतासिद्धि (1) पृथ्वीकायिक—काठिन्य प्रादि लक्षणों से जानी जाने वाली पृथ्वी ही जिनका शरीर (काय) होता है, वे पृथ्वी काय या पृथ्वी कायिक कहलाते हैं। मिट्टी, मुरड, खड़ी, गेरू, हींगल, हिरमच, लवण, पत्थर, बाल, सोना, चांदी, अभ्रक, रत्न, हीरा, पन्ना आदि पृथ्वीकायिक जीवों के प्रकार हैं। केवलज्ञानरूपी आलोक से लोक-अलोक को प्रत्यक्ष जानने वाले भगवान् ने पृथ्वी को सचेतन (सजीव) कहा है। पृथ्वी की सचेतनता सिद्धि के लिए आगमप्रमाण के अतिरिक्त अनुमानप्रमाण भी हैं-(१) पृथ्वी सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई खान आदि की मिट्टी सजातीय अवयवों से स्वयमेव भर जाती है / जो सजातीय अवयवों से भर जाता है, वह सचेतन होता है। जैसे—चेतनायुक्त मानवशरीर / जीवित मानवशरीर में घाव हो जाता है, तब वह उसी तरह के अवयवों से स्वयं भर जाता है, उसी प्रकार खोदी हुई खान आदि की पृथ्वी उसी प्रकार के अवयवों से भर जाती है और पूर्ववत् हो जाती है / इसलिए पृथ्वी सचेतन (सजीव) है। (2) पृथ्वी सचित्त है, क्योंकि उसमें प्रतिदिन घर्षण और उपचय दृष्टिगोचर होता है, जैसेपैर का तलुगा / पैर का तलुमा घिस जाने के बाद पुन: भर जाता है, वैसे ही पृथ्वी भी घिस जाने के बाद फिर भर जाती है, इसलिए वह सजीव है / (3) विद्रम (मंगा) पाषाण आदि-रूप पृथ्वी सजीव (सचित्त) है क्योंकि कठिन होने पर भी उसमें वृद्धि देखी जाती है, जैसे -- जीवित प्राणी के शरीर को हड्डी / अर्थात्-जीवित प्राणी के शरीर की हड्डी आदि कठोर होने पर भी बढ़ती है, इसलिए सचेतन है, उसी प्रकार विद्र म, शिला आदि रूप पृथ्वी में काठिन्य होने पर भी वृद्धि आदि गुण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इससे सिद्ध है कि पृथ्वी सचित्त (सजीव) है / 12 9. 'धम्मे पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती अज्झयणविसेसो।' -अगस्त्य. चू., पृ. 73 10. 'अध्येतुमिति पठितु श्रोतु भावयितुम् / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 138 11. (क) 'मे इति अत्तणो निद्दे से।' --जिन. चूणि, पृ. 132 (ख) ममेत्यात्मनिर्देशः। --हा. वृत्ति, पत्र 138 (क) पृथ्वी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता, सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवी कायाः पृथ्वीकाया एव पृथिवीकायिकाः / ' -हारि. वत्ति, पत्र 130 (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 206 से 208 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy