________________ चतुर्थ अध्ययन : षड़जीवनिका] भगवान् : व्याख्या -'भग' शब्द 6 अर्थों में प्रयुक्त होता है--(१) समग्र ऐश्वर्य, (2) रूप, (3) यश, (4) श्री, (5) धर्म और (6) प्रयत्न / जिसमें ऐश्वर्य आदि समग्ररूप में होते हैं, वह 'भगवान्' कहलाता है / महावीर : व्याख्या भयंकर भय, भैरव तथा प्रधान अचेलकत्व आदि कठोर परीषहों को सहन करने के कारण देवों ने भगवान का नाम 'महावीर' रखा / यश और गुणों (को अर्जित करने) में महान् वीर होने से भगवान् को 'महावीर' कहते हैं। कषायादि महान् आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के कारण भी भगवान् महाविक्रान्त—महावीर कहलाए। कहा भी है-'जो कर्मों को विदीर्ण करता है, तपश्चर्या से सुशोभित है, तपोवीर्य से युक्त होता है, इस कारण वह 'वीर' कहलाता है / इन गुणों को अर्जित करने में वे महान् वीर थे, इसलिए महावीर कहलाए। _ 'पवेइया, सुयक्खाया, सुपन्नत्ता': तीनों विशेषणों का विशेषार्थ-प्रवेदित : तीन अर्थ(१) सम्यक् प्रकार से विज्ञात किया-- से विज्ञात किया जाना हाः (2) केवलज्ञान के ग्रालोक में स्वयं भलीभांति वेदित--जाला हुआ; (3) विविध रूप से अनेक प्रकार से कथित / सुआख्यातः--(१) सम्यक् प्रकार से कहा, (2) देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् में सम्यक् प्रकार से (षड्जीवनिका अध्ययन) कहा / सुप्रज्ञप्त : दो अर्थ-(१) जिस प्रकार प्ररूपित किया गया, उसी प्रकार आचरित भी किया गया है, अतएव सुप्रज्ञप्त है। जो उपदिष्ट तो हो पर आचरित न हो, वह सुप्रज्ञप्त नहीं कहलाता / (2) सम्यक् प्रकार से प्रज्ञप्त, अर्थात्-जिस प्रकार कहा गया, उसी प्रकार सुष्ठ-सूक्ष्म दोषों के परिहारपूर्वक प्रकर्षरूप से सम्यक् प्रासेवित किया गया। यहाँ ज्ञप् धातु प्रासेवन अर्थ में प्रयुक्त है / षड्जीवनिका के इन तीनों विशेषणों का संयुक्त अर्थ हुआ–श्रमण भ. महावीर ने षड्जीविका को सम्यक् प्रकार से जाना, उसका उपदेश किया और जैसा उपदेश किया, वैसा स्वयं आचरण भी किया। 6. (क) ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः / धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना / / (ख) भगशब्देन ऐश्वर्य-रूप-यश:-श्री-धर्म-प्रयत्ना अभिधीयन्ते, ते यस्य सन्ति स भगवान् / __-जिन. चूणि, पृ. 131 7. (क) भीम भय-भेरवं उराले अचेलयं परीसह सहइ त्ति कटु देवेहिं से नाम कयं समणं भगवं महावीरे।। --प्राचा. चूणि, पृ.१५-१६ (ख) कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः। -हारि. वृत्ति, पत्र 137 (ग) विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते, तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर इति स्मृतः / -हा. टी., 167 8. (क) 'स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता-विज्ञातेत्यर्थः / -हारि. वृत्ति, पत्र 137 (ख) प्रवेदिता नाम विविहमनेकपकारं कथितेत्युक्तं भवति। -जिन. चणि, प. 132 (ग) सोभणेण पगारेण अक्खाता सुटछु वा अक्खाया। -जिन, चूणि, प. 132 (घ) 'सदेवमनुष्यासुराणा पर्षदि सुष्ठ आख्याता स्वाख्याता। ---हारि. वृत्ति, पत्र 137 (ङ) 'जहेब परूविया तहेव पाइण्णावि / ' –जिनदास. चूर्णि, पृ. 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org