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________________ [दशवकालिक सूत्र [32] (सुधर्मस्वामी अपने सुशिष्य जम्बूस्वामी से) हे आयुष्मन् ! (जम्बू ! ) मैंने सुना है, उन भगवान् ने इस प्रकार कहा-इस (निर्गन्थ-प्रवचन) में निश्चित ही (षट्काय के जीवों का निरूपण करने वाला) षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन काश्यप-गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रवेदित, सुपाख्यात और सुप्रज्ञप्त है / (इस) धर्मप्रज्ञप्ति (जिसमें धर्म की प्ररूपणा है) अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है // 1 // [33 प्र.] वह षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन कौन-सा है, जो काश्यप-गोत्रीय श्रमण भगवान् द्वारा प्रवेदित है, सु-याख्यात और सुप्रज्ञप्त है; जिस धर्मप्रज्ञप्ति-अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है ? // 2 // _[34 उ.] वह 'षड्जीवनिकाय' नामक अध्ययन, जो काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित, सु-याख्यात और सुप्रज्ञप्त है, (और) जिस धर्मप्रज्ञप्ति-अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है, यह है, जैसे कि-पृथ्वीकायिक (जीव), अप्कायिक (जीव), तेजस्कायिक (जीव), वायुकायिक (जीव) वनस्पतिकायिक (जीव) और त्रसकायिक जीव / / 3 / / [35] शस्त्र-परिणत के सिवाय पृथ्वी सचित्त (चित्तवती) कही गई है, वह अनेक जीवों और पृथक्सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाली है / / 4 / / [36] शस्त्र-परिणत को छोड़ कर अप्काय (जल) सचित्त (सजीव) कहा गया है; वह अनेक जीवों और पृथक्-पृथक् सत्त्वों वाला है / / 5 / / [37] शस्त्र-परिणमन हुए बिना अग्निकाय सचेतन (सजीव) कहा गया है / वह अनेक जीवों और पृथक्-पृथक् सत्त्वों से सम्पन्न होता है / / 6 / / [38] शस्त्र-परिणत के सिवाय वायुकाय सचेतन कहा गया है / वह अनेक जीवों और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाला है / / 7 / / [36] शस्त्र-परिणत के सिवाय वनस्पति चित्तवती (सजीव) कही गई है। वह अनेक जीवों और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक के पृथक्-पृथक् अस्तित्व) वाली है / उसके प्रकार ये हैं-अग्रबीज, मूलबोज, पर्वबीज, स्कन्धबीज, बोजरुह, सम्मूछिम तृण और लता शस्त्रपरिणत के सिवाय (ये) वनस्पतिकायिक जीव बीज-पर्यन्त सचेतन कहे गए हैं। वे अनेक जीव हैं और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जोब स्वतंत्र अस्तित्व) वाले हैं / / 8 / / [40] (स्थावरकाय के) अनन्तर ये जो अनेक प्रकार के बहुत से त्रस प्राणी हैं, वे इस प्रकार हैं-अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूच्छिम, उद्भिज्ज (और) औपपातिक / जिन किन्हीं प्राणियों में अभिक्रमण (सम्मख जाना), प्रतिक्रमण (पीछे लौटना), संकुचित होना (सिकुड़ना), प्रसारित होना (फैलना, पसरना), शब्द (आवाज) करना, भ्रमण करना (इधर-उधर गमन करना), त्रस्त (भयभीत) होना (घबराना), भागना (पलायित होना, दौड़ना)--(आदि क्रियाएँ स्वतः प्रेरित) हों, तथा जो प्रागति और गति के विज्ञाता हों, (वे सब स हैं।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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