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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका] [81 जो कीट और पतंगे हैं, तथा जो कुन्थु और पिपीलिका (चींटियाँ आदि) हैं, वे सब द्वीन्द्रिय (स्पर्शन और रसन, इन दो इन्द्रियों वाले जीव), सब त्रीन्द्रिय (स्पर्शन, रसन और प्राण इन तीन इन्द्रियों वाले जीव), समस्त चतरिन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्ष, इन चार इन्द्रियों वाले जीव) तथा समस्त पंचेन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र, इन पांच इन्द्रियों वाले जीव; यथा-) समस्त तिर्यञ्चयोनिक, समस्त नारक, समस्त मनुष्य, समस्त देव और समस्त प्राणी परम सुख-स्वभाव वाले हैं / यह छठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है / / 6 // विवेचन–धर्मप्रज्ञप्ति का प्ररूपण---प्रस्तुत धर्मप्रज्ञप्ति, जो कि षड्जीव-निकाय अध्ययन का हो दूसरा नाम है, भ. महावीर के द्वारा प्रवेदित सु-ग्राख्यात और सुप्रज्ञप्त हैं, यह प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में कहा गया है। किन्तु 'पायुष्मन' सम्बोधन के द्वारा कौन किससे कह रहा है ? और किसने किस भगवान् से सुना है ? यह भी यहां स्पष्ट नहा ह / / है ? यह भी यहाँ स्पष्ट नहीं है। हरिभद्रसूरि तथा चूर्णिकार जिनदास महत्तर का इस विषय में स्पष्टीकरण यह है कि 'आयुष्मन् !' सम्बोधन गणधर श्रीसुधर्मास्वामी के द्वारा अपने प्रिय सुशिष्य जम्बूस्वामी के लिए किया गया है। तथा 'मैंने सुना है' का अभिप्राय है--सुधर्मास्वामी ने सुना है। उन भगवान् ने ऐसा कहा है, इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि भगवान महावीर ने ऐसा कहा है। परन्तु इसकी प्रागे के पाठ के साथ संगति नहीं बैठती कि भगवान ही अपने मुह से यह कहें कि काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा प्रवेदित किया, कहा आदि / अतः जैसे उत्तराध्ययन के 16 वें अध्ययन में 'थेरेहिं भगवंतेहि' कह कर स्थविर भगवन्तों को उसका प्ररूपक माना गया, इसी प्रकार यहाँ प्रथम बार आया हुमा 'भगवान्' शब्द भ. महावीर का द्योतक न होकर शास्त्रकार के किसी प्रज्ञापक प्राचार्य या स्थविर भगवान् का द्योतक प्रतीत होता है / अर्थात् मैंने उन (अपने प्रज्ञापक आचार्य) भगवान् से ऐसा सुना है / यही प्राशय संगत बैठता है / ' __ पाउसं तेण भगवया: चार रूप अर्थ और व्याख्या-(प्राउसं तेण) (1) आयुष्मन् ! तेन भगवता-हे आयुष्मन् जम्बू ! उन प्रज्ञापक प्राचार्य भगवान् ने। (2) (आउसंतेण भगवया) पायुष्मता भगवता-आयुष्मान् (चिरंजीवी) भगवान् ने। (3) आवसंतेण (आवसता मया) = गुरुकुल (गुरुचरणों) में रहते हुए मैंने (सुना) / (5) प्रामुसंतेण (आमृशता मया)-मस्तक से चरणों का स्पर्श (प्रामर्श) करते हुए (मैंने सुना) / 'आयुष्मन' सम्बोधन का रहस्य-जिसकी अधिक आयु हो उसे आयुष्मान् कहते हैं / 'पाउस' या 'पाउसो' शब्द द्वारा शिष्य को आमंत्रित (सम्बोधित) करने की पद्धति जैन-बौद्ध आगमों में यत्र 1. (क) तेन भगवता वर्धमानस्वामिना / "हारि. टी., पृ. 136 (ख) "भावसमण-भावभगवंत महावीरगहणनिमित्त पुणो गहणं कयं / --जि. च., पृ. 131 / (ग) दश वै. (मुनि नथमलजी), पृ. 120 2. (क) 'ग्राउसंतेण' भगवत एव विशेषणम् ।घायुष्मता भगवता चिरजीविनेत्यर्थः / अथवा जीवता साक्षादेव / हारि. टी., पत्र 137 (ख) श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावस्थितेन तृतीयो विकल्पः -जिन. चू., पृ. 131 (ग) सुयं मया एयमझयणं प्रामुसंतेण-भगवतः पादौ प्रामशता। -वही, पृ. 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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