SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाश्चात्य विचारक वर्क का मन्तव्य है-संसार को दुःखमय बनाने वाली अधिकांश दुष्टताएं शब्दों से ही उत्पन्न होती हैं। श्रमण, जो साधना की उच्चतम भूमि पर अवस्थित है, उसे अपनी वाणी पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए। यहाँ तक कि श्रमण जो भाषा सत्य होते हुए भी वोलने योग्य नहीं है, वह न वोले और न मिश्र भाषा का ही प्रयोग करे। जो भाषा व्यावहारिक है, सत्य है, पापरहित, अकर्कश और सन्देहरहित है, उसी भाषा का प्रयोग करे। निश्चयकारी भाषा का प्रयोग इसीलिए निषिद्ध किया गया है कि वह भाषा अहिंसा और अनेकान्त की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। साधक के जीवन में वाक्यशूद्धि का कितना महत्त्व है, यह बताने के लिए प्रस्तुत अध्ययन है। ___ पाठवें अध्ययन का नाम प्राचारप्रणिधि है। इस अध्ययन में 63 गाथाएँ हैं। इस अध्ययन में प्राचार का नहीं अपितु प्राचार की प्राणधि या प्राचार सम्बन्धी प्रणिधि का निरूपण है। प्राचार एक महान् निधि है / उस निधि को पाकर श्रमण किस प्रकार चले, उसका दिग्दर्शन इस अध्ययन में किया गया है। प्रणिधि का अपर अर्थ एकाग्रता स्थापना और प्रयोग है। श्रमण को इन्द्रियों के विकारों के प्रवाह में प्रवाहित न होकर, आत्यस्थ होना चाहिए। अप्रशस्त प्रयोग न कर प्रशस्त प्रयोग करने चाहिए। इसकी शिक्षा इस अध्ययन में दी गई है / इस अध्ययन में क्रोध-मान-माया-लोभ जो पाप को बढ़ाते हैं, पुनर्जन्मरूपी वृक्ष का सींचन करते जाते हैं, उन कपायों को जीतने का संदेश दिया है। शान्तिमार्ग के पथिक साधक के लिए वपाय का त्याग आवश्यक है / कषाय मानसिक उद्वेग हैं, आवेग हैं। एक कषाय में भी इतना सामर्थ्य है कि वह साधना को विराधना में परिवर्तित कर सकता है तो चारों कषाय साधना का कितना अधःपतन कर सकते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है। क्रोध की अग्नि सर्वप्रथम क्रोध करने वाले को ही जलाती है। मान प्रगति का अवरोधक है। माया अविद्या और असत्य की जननी है और कुल्हाड़े के समान–शीलरूपी वृक्ष को नष्ट करनेवाली है / लोभ ऐसी खान है जिसके खनन से समस्त दोष उत्पन्न होते हैं / यह ऐसा दानव है जो समस्त सद्गुणों को निगल जाता है / यह सारे दुःखों का मूलाधार है और धर्म और कर्म के पूरुषार्थ-मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। इस प्रकार आचरणीय अनेक साधना के पहलुओं पर इस अध्ययन में प्रकाश डाला है। नौवें अध्ययन का नाम विनय-समाधि है / इस अध्ययन में 62 गाथाएं हैं तथा सात सूत्र और चार उद्देशक हैं जिनमें विनय का निरूपण किया गया है। विनय का वास्तविक अर्थ है-वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए, उनकी प्राज्ञाओं का पालन करते हुए अनुशासित जीवन जीना / विनय को धर्म का मूल कहा है। विनय और अहंकार में ताल-मेल नहीं है, दोनों की दो विपरीत दिशाएं हैं। अहंकार की उपस्थिति में विनय केवल औपचारिक होता है। अहं का विसर्जन ही विनय है। अहं के शून्य होने से ही मानसिक, वाचिक और कायिक विनय प्रतिफलित होता है। इसके विना व्यक्ति का रूपान्तर असंभव है। भगवान महावीर ने कहा-बिना अहंकार को जीते साधक विनम्र नहीं बन सकता / जब साधक अहं से पूर्ण मुक्त हो जाता है तभी वह समाधि को प्राप्त करता है। विनीत व्यक्ति गुरु के अनुशासन को सुनता है, जो गुरु कहता है-उसे स्वीकार करता है, उनके वचन की आराधना करता है और अपने मन को अाग्रह से मुक्त रखता है / इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में विविध इप्टियों से विनय-समाधि का निरूपण हुया है / इसमें यह बताया है कि यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी भी हो जाये तो भी वह प्राचार्यों की उसी तरह अाराधना करता है जैसे पहले करता था। जिसके पास धर्म का अध्ययन किया उसके प्रति शिष्य को मन, वचन और कर्म से विनीत रहना चाहिए। जो णिप्य विनीत होता है, वही गुरुजनों के स्नेह को प्राप्त करता है, अविनीत शिष्य विपदा को आमन्त्रित करता है। विनीत शिष्य ही ज्ञान-सम्पदा को प्राप्त कर सकता है। इस अध्ययन में विनय, श्र त, तप और प्राचार, इन चारों समाधियों का वर्णन भी है और वे समाधियां किस तरह प्राप्त होती हैं, इसका भी निरूपण है। [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy