________________ दसवें अध्ययन का नाम सभिक्ष है / इस अध्ययन की इक्कीस गाथाओं में भिक्ष के स्वरूप का निरूपण है / भिक्षा से जो अपना जीवनयापन करता हो वह भिक्ष है। सच्चा और अच्छा श्रमण भी "भिक्षक' संज्ञा से ही अभिहित किया जाता है और भिखारी भी। पर दोनों की भिक्षा में बहुत बड़ा अन्तर है, दोनों के लिए शब्द एक होने पर भी उद्देश्य में महान अन्तर है / भिखारी में संग्रहवत्ति होती है जबकि श्रमण दूसरे दिन के लिए भी खाद्य-सामग्री का संग्रह करके नहीं रखता / भिखारी दीनवृत्ति से मांगता है पर श्रमण अदीनभाव से भिक्षा ग्रहण करता है। भिखारी देने वाले की प्रशंसा करता है पर श्रमण न देने वाले की प्रशंसा करता है और न अपनी जाति, कुल, विद्वत्ता आदि बताकर भिक्षा मांगता है। भिखारी को भिक्षा न मिलने पर वह गाली और शाप भी देता है किन्तु श्रमण न किसी को शाप देता है और न गाली ही। श्रमण अपने नियम के अनुकल होने पर तथा निर्दोष होने पर ही वस्तु को ग्रहण करता है / इस प्रकार भिखारी और श्रमण भिक्षु में बड़ा अन्तर है / इमीतिर अध्यपन का नाम मभिक्षु या सभिक्ष दिया है। पूर्ववर्ती नौ अध्ययनों में जो श्रमणों की प्राचारसंहिता बतलाई गई है, उसके अनुसार जो श्रमण अपनी पार्शदानुसार अहिंसक जीवन जीने के लिए भिक्षा करता है---वह भिक्षु है / इस अध्ययन की प्रत्येक गाथा के अन्त में सभिक्खु शब्द का प्रयोग हुया है / भिक्षुचर्या की दृष्टि से इस अध्ययन में विपुल सामग्री प्रयुक्त हुई है। भिक्षु वह है जो इन्द्रियविजेता है, अाक्रोश-वचनों को, प्रहारों को, तजनाओं को शान्त भाव से सहन करता है, जो पुनः पुनः व्युत्मर्ग करता है, जो पृथ्वी के समान सर्व सह है, निदान रहित है, जो हाथ, पैर, वाणी, इन्द्रिय से संयत है, अध्यात्म में रत है, जो जाति, रूप, लाभ व श्रुत प्रादि का मद नहीं करता, अपनी आत्मा को शाश्वत हित में सुस्थित करता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण के उत्कृष्ट त्याग की झलक दिखाई देती है। दस अध्ययनों के पश्चात प्रस्तुत प्रागम में दो चलिकाएं भी हैं। प्रथम चूलिका का नाम रतिवाक्या है। इसमें अठारह गाथाएं हैं तथा एक सूत्र है। इसमें संयम में अस्थिर होने पर पुनः स्थिरीकरण का उपदेश दिया गया है। असंयम की प्रवृत्तियों में सहज आकर्षण होता है, वह आकर्षण संयम में नहीं होता / जिनमें मोह की प्रबलता होती है, उन्हें इन्द्रियविषयों में सुखानुभूति होती है। उन्हें विषयों के निरोध में प्रानन्द नहीं मिलता। जिन के शरीर में खुजली के कीटार होते हैं, उन्हें खुजलाने में सुख का अनुभव होता है किन्तु जो स्वस्थ हैं उन्हें खुजलाने में प्रानन्द नहीं आता और न उनके मन में खुजलाने के प्रति आकर्षण ही होता है / जब मोह के परमाणु बहुत ही सक्रिय होते हैं तब भोग में सुख की अनुभूति होती है पर जो साधक मोह से उपरत होते हैं उन्हें भोग में सुख की अनुभूति नहीं होती। वह भोग को रोग मानता है / कई बार भोग का रोग दब जाता है किन्तु परिस्थितिवश पुनः उभर आता है। उस समय कुशल चिकित्सक उस रोग का उपचार कर ठीक करता है, जिससे वह गेगी स्वस्थ हो जाता है / जो साधक मोह के उभर आने पर साधना से लड़खड़ाने लगता है, उस साधक को पुनः संयम-साधना में स्थिर करने का मार्ग इस चलिका में प्रतिपादित है। इस चलिका के वाक्यों से साधक में संयम के प्रति रति उत्पन्न होती है, इसीलिए इस चूलिका का नाम रतिवाक्या है / इसमें जो उपदेश प्रदान किया गया है, वह बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है / दूसरी चलिका विविक्तचर्या है / इस चलिका में सोलह गाथाएं हैं। इसमें श्रमण के चर्या गुण और नियमों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम विविक्तचर्या रखा गया है। संसारी जीव अनुस्रोतगामी होते हैं। वे इन्द्रिय और मन के विषय-सेवन में रत रहते हैं, पर साधक प्रतिस्रोतगामी होता है / वह इन्द्रियों की लोलुपता के प्रवाह में प्रवाहित नहीं होता। वह जो भी साधना के नियम-उपनियम हैं, उनका सम्यक् प्रकार से पालन करता है। पांच महाव्रत मूलगुण हैं। नवकारसी, पौरसी आदि प्रत्याख्यान उत्तरगुण हैं। स्वाध्याय, कायोत्सर्ग [ 15 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org