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________________ प्रामम में परिग्रह की बहुत ही सुन्दर परिभाषा की गई है-मुच्छा परिगहो वुत्तो। कोई भी वस्तु, चाहे बड़ी हो छोटी हो, जड़ हो या चेतन हो, अपनी हो या पराई हो, उस में प्रासक्ति रखना परिग्रह है। रेग्रह सबसे बड़ा विध है। श्रमण उस विष से मुक्त होता है। इसलिए प्रस्तुत अध्ययन में 'सव्वाग्रो परिग्गहाम्रो वेरमणं' पाठ प्रयुक्त हुया है। महावतों के साथ ही रात्रिभोजन का भी श्रमण पूर्ण रूप से त्यागी होता है। महाव्रतों का सम्यक पालन वही कर सकता है जिसे पहले ज्ञान हो। ज्ञान के अभाव में दया की आराधना नहीं हो सकती और बिना दया के अन्य व्रतों का पालन नहीं हो सकता। इस दृष्टि से यह अध्ययन अत्यन्त प्रेरणादायी सामग्री से भरा हुआ है। पाँचवें अध्ययन का नाम पिण्डषणा है। यह अध्ययन दो उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में सौ गाथाएं हैं तो द्वितीय उद्देशक में पचास गाथाएं हैं। इस अध्ययन में भिक्षा संबंधी गवेषणा, ग्रहणषणा और परिभोगपणा का वर्णन है। इसलिए इस अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। भिक्षा श्रमण की कठोर चर्या है, उस चर्या में निखार आता है दोषों को टालने से। भिक्षु निर्दोष भिक्षा ग्रहण करे। प्रस्तुत अध्ययन में किस प्रकार भिक्षा के लिए प्रस्थान करे ? चलते समय उसे किन-किन बातों की सावधानी रखनी चाहिए ? वर्षा बरस रही हो, कोहरा गिर रहा हो, महावात चल रहा हो और मार्ग में तिर्यक् सम्पातिम जीव छा रहे हों तो भिक्षु भिक्षा के लिए न जाए। ऐसे स्थानों पर न जाए जहाँ जाने से संयम-साधना की विराधना संभव हो। मल-मूत्र की बाधा हो तो उसे रोककर भिक्षा के लिए न जाय क्योंकि उससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किस प्रकार भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए? आदि विषयों पर बहुत ही विस्तार से विवेचन किया है। भिक्षा के लिए चलते हए जो भी घर आ जाए, बिना किसी भेदभाव के वहाँ से भिक्षा ले। स्वादु भोजन की तलाश न करे किन्तु स्वास्थ्य की उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। उसकी भिक्षा सामान्य भिक्षा न होकर विशिष्ट भिक्षा होती है। ___ छठे अध्ययन का नाम महाचार कथा है। इसमें 68 गाथाएं हैं। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक-प्राचार कथा है तो इस अध्ययन में महाचार की कथा है। क्षुल्लक-प्राचार कथा में अनाचारों का संकलन है, सामान्य निरूपण है, उसमें केवल उत्सर्ग मार्ग का ही निरूपण है, जबकि इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों का ही निरूपण है। दोनों ही मार्ग साधक की साधना को लक्ष्य में रखकर बनाए गए हैं। एक नगर तक पहुंचने के दो मार्ग हैं, वे दोनों ही मार्ग कहलाते हैं; अमार्ग नहीं। वैसे ही उत्सर्ग भी साधना का मार्ग है और अपवाद भी / उदाहरण के रूप में बाल, वद्ध, रोगी श्रमणों के लिए अठारह स्थान वर्ण्य माने हैं। उन अठारह स्थानों में सोलहवां स्थान 'गहान्तरनिषद्यावर्जन' है, जिसका अर्थ है-गृहस्थ के घर में नहीं बैठना / इसका अपवाद भी इमी अध्ययन की 59 वी गाथा में है कि जराग्रस्त, रोगी और तपस्वी निर्ग्रन्थ गहस्थ के घर बैठ सकता है। क्षुल्लक-माचार कथा का प्रस्तुत अध्ययन में सहेतु निरूपण हुआ है। सातवें अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है। इस अध्ययन में 57 गाथाएं हैं, जिसमें भाषा-विवेक पर बल दिया है। जो प्राचारनिष्ठ होगा उसकी वाणी में विवेक अवश्य होगा। जैन श्रमणों के लिए गुप्ति, समिति और महाव्रत का पालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। महाव्रत में द्वितीय महाव्रत भाषा से सम्बन्धित है तो गुप्ति और ममिति में भी द्वितीय गुप्ति और द्वितीय समिति भाषा से ही संबंधित है। वचन-गुप्ति में मौन है और समिति में विचार युक्त वाणी का प्रयोग है। जिसमें श्रमण कर्कश, निष्ठर, अनर्थकारी, जीवों को आघात और परिताप देने वाली भाषा का प्रयोग नहीं करता। वह अपेक्षा दृष्टि से प्रमाण, नय और निक्षेप से युक्त हित, मित, मधुर और सत्य भाषा बोलता है। वाणी का विवेक सामाजिक जीवन के लिए भी आवश्यक है। - [ 13 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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