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________________ 74] [दशवकालिकसूत्र अकंड्यन, आक्रोश, तर्जना, ताड़ना आदि का सहन करना दुःसह है / तात्पर्य यह है कि श्रमण जीवन में जो अनेक दुःसह परीषह और दुःसह्य उपसर्ग आते हैं, उन्हें समभावपूर्वक सहन करे / दुःसह परीषदों और उपसगों के प्राप्त होने पर जो साधक क्षब्ध एवं खिन्न होकर रोते-बिलखते दीनतापूर्वक सहन करते हैं, वे कर्मक्षय नहीं कर पाते , किन्तु जो उन्हें शान्तभाव से समभावपूर्वक किसी निमित्त को दोष न देते हुए सहन कर लेते हैं, वे पूर्वकृत कर्मों को क्षीण कर देते हैं। 62 दो परिणाम-पूर्वोक्त आचरण से कई निर्ग्रन्थ श्रमण, जिनके कर्मक्षय करने शेष रह गए हैं, वे पूर्वकृत शुभकर्मों के फलस्वरूप देवलोक में जाते हैं, किन्तु कई श्रमण, जो नीरजस्क, अर्थात् आठों ही प्रकार के कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, वे उसके फलस्वरूप सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। सांसारिक जीवों की आत्मा में कर्मपुद्गलों की रज, कुप्पी में काजल की तरह लूंस-ठूस कर भरी हुई होती है, उसे पूर्ण रूप से सर्वथा बाहर निकालने (अष्टविधकर्म का प्रात्यन्तिक क्षय करने) पर आत्मा नीरज या नीरजस्क हो जाती है / ताइणो सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता—जो साधक इसी भव में मोक्ष नहीं पाते, वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं / वहाँ का आयुष्य पूर्ण करके अवशिष्ट कर्मों का क्षय करने हेतु मनुष्य भव में उत्पन्न होते हैं, जहाँ उन्हें इस प्रकार का उत्तम सुयोग मिलता है कि वे संसार से विरक्त होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्ष (सिद्धि) मार्ग को क्रमश: प्राप्त कर लेते हैं। निर्ग्रन्थ मुनि होकर षट्काय के त्राता (रक्षक) बन जाते हैं / यही इन विशेषणों का आशय है / 64 संयम और तप द्वारा कर्मक्षय क्यों और कैसे ?-जब षटकाय के रक्षक, निर्ग्रन्थ मुनि मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होते हैं, तब उनका उद्देश्य पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करना और नये प्राते हुए कर्मों को रोकना ही रह जाता है। क्योंकि सर्वथा कर्मक्षय किये बिना वे नीरजस्क और मुक्त नहीं हो सकते / कर्मक्षय करने के दो ही अमोघ उपाय हैं---संयम और तप / संयम से नये कर्मों का प्राश्रव रुक जाता है, अर्थात्-संयम- संवर नूतन कर्मों के प्राश्रव (आगमन) को रोक देता है और तप पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट कर देता है। संयम और तप के द्वारा असंख्य भवों में संचित कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं ? यह तथ्य उत्तराध्ययन में एक रूपक द्वारा समझाया गया है। जैसे किसी बड़े तालाब में पानी के आने के मार्ग को रोक देने पर, तथा पूर्वसंचित जल को उलीचने से और सूर्य के ताप लगने से बह जल क्रमश: सुख जाता है, उसी प्रकार पापकर्मों के प्राश्रव (आगमन) संयम (संवर) से रुक जाने पर बारह प्रकार के सम्यक् तप से संयमी पुरुष के भी करोड़ों भवों में संनित कर्म निर्जीर्ण (क्षीण) हो जाते हैं। 62. (क) 'पायावयंति गिम्हेसु' एवमादीणि दुस्सहादीणि (सहेत्त य) ---अगस्त्य. चूणि पृ. 64 (ख) प्रातापना-अकंडयनाक्रोश-तर्जना-ताडनाधिसहनादीनि, दूसहाई सहिउं / —जिन. चू. पृ. 117 (ग) 'परीसहा दुव्विसहा अणे गे " संगामसीसे इव नागराया।' - उत्तराध्ययन प्र. 21117-18 63. 'जीरया नाम अट्ठ (विह) कम्मपगडी-विमुक्का भण्णं ति / ' --जिन. चूणि, पृ. 117 64. सिद्धिमम्गं दरिसण-नाण-चरित्तमतं अणुप्पत्ता / -. . पृ. 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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