________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा) जन्म, जरा, रोग, मृत्यु आदि दुःख हैं / यह संसार ही दुःखरूप है, जहाँ प्राणी क्लेश पाते हैं / 56 उत्तराध्ययनसूत्र में ही बताया है कि 'कर्म ही जन्म-मरण का मूल है, और जन्ममरण ही दुःख हैं।" इस वाक्य का तात्पर्य यह हुआ कि जितेन्द्रिय महर्षि जन्म-मरण के दुःखों, अर्थात् उनके निमित्तभूत कर्मों के क्षय के लिए पुरुषार्थ करते हैं / कर्मों का क्षय होने से समस्त दु:ख स्वत: ही क्षीण हो जाते हैं। शुद्ध श्रमणाचार-पालन का फल 30. दुक्कराई करेत्ता णं, दुस्सहाई सहेत्तु य / ___ केइत्य देवलोएसु, केइ सिझति नीरया // 14 // 31. खवेत्ता पुवकम्माइं, संजमेण तवेण य। सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिनिन्वुडा // 15 // —त्ति बेमि // ॥खुड्डियायारकहा : तइयं अजयणं समत्तं // [30] दुष्कर (अनाचीणों का त्याग एवं प्रातापना आदि क्रियाओं) का प्राचरण करके तथा दुःसह (परीषहों और उपसर्गो) को सहन कर, उन (निर्ग्रन्थों) में से कई देवलोक में जाते हैं और कई नीरज (कर्मरज से रहित) होकर सिद्ध हो जाते हैं / / 14 / / [31] (देवलोक से क्रमशः) सिद्धिमार्ग को प्राप्त, (स्व-पर के) त्राता (वे निर्ग्रन्थ) संयम और तप के द्वारा पूर्व-(संचित) कर्मों का क्षय करके परिनिर्वृत्त (मुक्त) हो जाते हैं // 15 // -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-दुष्कर और दुःसह प्राचरण का परिणाम-प्रस्तुत दो गाथाओं (14-15) में पूर्वोक्त अनाचीणों का त्याग एवं कठोर प्राचार का परिपालन करने वाले निर्ग्रन्थों को प्राप्त होने वाले अनन्तरागत और परम्परागत फल का निरूपण किया गया है। दुक्कराइं करेत्ता प्राचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार प्रौद्देशिक प्रादि पूर्वोक्त अनाची) का त्याग आदि दुष्कर है, उसे करके / उत्तराध्ययनसूत्र में इसका विशद निरूपण है कि श्रमण निर्ग्रन्थ के लिए क्या-क्या दुष्कर हैं ?'' दुस्सहाई सहेतु-अगस्त्य चूणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में प्रातापना आदि श्रमणों के पूर्वोक्त प्राचार दुःसह हैं, उनको समभावपूर्वक सहन करके / जिनदास महत्तर के अनुसार--प्रातापना, 59. जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य ग्रहो दुक्खो हु संसारे जत्थ कोसंति जंतवो। उत्तरा. अ. 19-15 60. कम्मं च जाई-मरणम्स मुलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति। -उत्तरा. 32 / 7 61. 'दुष्कराणि कृत्वा प्रौद्देशिकादि-(अनाचीर्णादि) त्यागादोनि / ' –हारि. वृत्ति, पत्र 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org