________________ 72] [दशवकालिकसूत्र जो वैसा न कर सकें, वे अन्य तप करें। हेमन्त ऋतु (शीतकाल) में अपावृत-अर्थात्-प्रावरण (चादर) से रहित होकर अग्नि तथा निर्वात स्थान के प्राश्रय से दूर रह कर तपोवीर्यसम्पन्न श्रमण प्रतिमास्थित होने चाहिए। तथा वर्षाऋतु में स्नेह-सूक्ष्मजल के स्पर्श से बचने के लिए, वह पवनरहित प्रावासस्थान में रहें, ग्रामानुग्राम विचरण न करें। तथा उन्हें अपनी इन्द्रियों और मन को प्रात्मा में संलीन करके एक स्थान में स्थित होकर, तपोविशेष में उद्यम करना चाहिए / 55 सुसमाहित संयत-जो संयमो साधु-साध्वो अपने सिद्धान्तों के प्रति भलोभाँति समाधानप्राप्त हैं, अथवा मन में सुनिश्चित हैं, वे सुसमाहित हैं, अथवा जिनका मन समाधि (अर्यात् -रत्नत्रय में अथवा श्रुन, विनय, प्राचार और तप रूप चार प्रकार को समाधि में) अचल है / 6 __ परीषहरिपुदान्त-मोक्षमार्ग से विचलित या भ्रष्ट न होने तथा कर्मनिर्जरा के लिए जिनका समभाव से सहन करना आवश्यक है, उन्हें परीषह कहते हैं। वे क्षधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि बाईस हैं। उन्हें रिपु (शत्रु) इसलिए कहा गया है कि वे दुर्दम हैं / उनके सम्पर्क से माधक के मोक्षमार्ग से च्युत होने को संभावना रहती है। किन्तु निम्रन्थ इन परीषह-रिपुओं को भलीभांति जीत लेता है / 57 धुतमोह---मोह का अर्थ टोकाकार ने अज्ञान किया है, किन्तु मोह का अर्थ मोहनीय कर्म या मोह (प्रासक्ति) भी होता है / धुतमोहा का अर्थ है-जिन्होंने मोह को प्रकम्पित कर दिया है, मोह की जड़ें हिला दी हैं / उसे विक्षिप्त या पराजित कर दिया है / सव्वदुक्खपहीणट्ठा -प्राशय-दुःख संसार में ही है, मोक्ष में नहीं / इसीलिए जन्म-मरणरूप संसार को दुःखमय बताया गया है / उन समस्त शारीरिक, मानसिक दुःखों के निवारण या विनाश के लिए महर्षि (अनन्तसुखमय मोक्ष के लिए) पराक्रम करते हैं / उत्तराध्ययन सूत्र में बनाया है-- 55. (क) अगस्त्यचूणि, पृ. 63 (ख) जिनदास चूणि, पृ. 116 (ग) हारि. टीका, पत्र 119 (घ) अगस्त्यचूणि, पृ. 63 (3) 'सदा इंदिय—णोइंदिय पडिसंलीणा, विसेसेण मिणेहसंघट्रपरिहरणत्थं निवातलतणमता वासास पडि. सलीणा गामाण गामं दुतिज्जति / " --अ. च. पृ. 63 (च) वासासु पडिसलीणा नाम (एक) प्राश्रयस्थिता इत्यर्थः / तवविसेसेसु उज्जमंति, नो गामनगराइसु विहरति / --जिन. चू. पृ. 116 56. (क) दशवं. (आचार्य श्री प्रात्मारामजी) पृ. 50 (ख) दश. (प्राचारमणिमंजूषा) भा. 1, पृ. 189 57. 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः।' ---तत्त्वार्थसूत्र 9-8, उत्तरा. अ. 2 58. (क) 'धुतमोहा' विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः / मोहः अज्ञानम् / -हारि. टीका, पत्र 119 (ख) मोहो--मोहणीयमण्णाणं वा।। - अगस्त्य चू., पृ. 64 (ग) धुयमोहा नाम जितमोहत्ति वुत्त भवइ / --जिन. चूणि, पृ. 117 (घ) 'जो विहुणइ कम्माइं भावधुयं तं वियाणाहि' -ग्राचारांग नियुक्ति, गा. 251 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org