SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा] [61 चिकित्सा करना-कराना निषिद्ध नहीं, किन्तु कन्दमूल, फल, फूल, बीज हरित वनस्पति छाल आदि का उच्छेदन करके उसे पका करके मुनि की सावध चिकित्सा करनी-करानी नहीं चाहिए / इस दृष्टि से सायद्य चिकित्सा करना-कराना ही अनाचार है / 24 इसके अतिरिक्त शरीर को बलवान् एवं पुष्ट बनाने के लिए घृतपानादि आहारविशेष करना या रसायन आदि सेवन करना भी अनाचीर्ण है / सूत्रकृतांग में इसका सर्वथा निषेध किया गया है / चैकित्स्य का एक अर्थ-वैद्यकवृत्ति-गृहस्थों की चिकित्सा करना भी है। जो कि अनाचरणीय है / 25 उपानत-धारण : चार अर्थ-पादुका, पादरक्षिका, पादत्राण अथवा पैरों के मौजे / निष्कर्ष यह है कि कारट या चमड़े आदि के जूते धारण करना साधु के लिए सर्वथा अनाचरणीय है, जिनदास महत्तर एवं हरिभद्रसरि के अनुसार शरीर की अस्वस्थ अवस्था में पैरों के या चक्षयों के दर्बल होने पर या प्रापत्काल में जूते (चमड़े या काष्ठ के सिवाय) धारण किये जा सकते हैं / 26 ज्योति समारम्भ-ज्योति-अग्नि, उसका समारम्भ करना अनाचीर्ण है; क्योंकि अग्नि को उत्तराध्ययनसूत्र में अत्यन्त प्राणिनाशक, सर्वत्र फैलने वाली, अति तीक्ष्ण, प्राणियों के लिए आघातजनक एवं पापकारी शस्त्र कहा गया है / इसलिए अग्नि के प्रारम्भ को दुर्गतिवर्धक दोष मान कर उसका यावज्जीवन के लिए साधुवर्ग त्याग करे / अग्निसमारम्भ में अग्नि के अन्तर्गत उसके समस्त रूप--अंगार, मुमुर, अचि, ज्वाला, अलात (मशाल), शुद्ध अग्नि और उल्का आदि सभी पा जाते हैं / प्रकारान्तर से अग्नि से पाहारादि पकाना-पकवाना, अग्नि जलाना-जलवाना, प्रकाश 24. (क) तेमिच्छे-रोगपडिकम्म। -अगस्त्य. चूणि पृ. 61 (ख) चैकित्स्य-व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् / -हारि, वृत्ति पत्र 117 (ग) देखिये उत्तराध्ययनसूत्र में चिकित्सा न करने-कराने का विधान ----अ.२-३२-३३ अ. 19 / गा. 75-76,78,79; उत्तरा. 15-8 (घ) प्राचा. 9-4-1 मूल तथा टीका, पत्र 284 (ङ) सूत्रकृतांग 1-9-15 टीका (च) उपासकदशांग 1-5 (छ) प्रश्न सं. 5 (ज) भगवती शतक 15, पृ. 393-394 25. (क) येन घृतपानादिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् अा-समन्तात् शूनीभवति-बलवानु पजायते तदाऽऽशूनीत्युच्यते // --सूत्रकृ. (ख) “मंतं मूलं विविहं वेज्जचिन्तं ....... तं परिम्नाय परिव्वए स भिक्खू / " उत्त. 15-8 (ग) “जे भिक्खू ते गिच्छापिंडं भुजइ, भुजतं का सातिज्जति / " -निशीथ 13-69 26. (क) उपानही काष्ठपादुके-सूत्र. टीका 1-9-18, पत्र 181 (ख) 'पादरक्षिकाम्'–भगवती 2-1 टीका, (ग) उवाहणा पादत्राणम् / -प्रग. चणि पृ. 61 (घ) "तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायक, न त्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन / " -हारि. वृत्ति पत्र 117 (ड) "..."." दुबलपानी चवखरबलो वा उवाहणानो प्राविधज्जा ण दोसो भवइ ति। ..."असमत्थेण पोयणे उप्पप्णे पाएस कायवा, ण उण सेसकालं / " --जि. च., पृ. 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy