________________ 60] [दशवकालिकसूत्र देहप्रलोकन : विशेषार्थ-दर्पण, पात्र, पानी, तेल, मधु, घृत, मणि, खड्ग एवं राब आदि में अपना चेहरा आदि देखना देह-प्रलोकन है, निशीथ में निर्ग्रन्थ के ऐसा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। 2. अट्ठावए : दो रूप : तीन अर्थ-(१) अष्टापद--(१) द्यूत, अथवा विशेष प्रकार का द्यूत. शतरंज (2) अर्थपद (क) गृहस्थ के आश्रित अर्थनीति आदि के विषय में बताना, अथवा गृहस्थ को सभिक्ष-दभिक्ष अादि के विषय में भविष्यकथन करना अथवा सत्रकतांग के अनसार-प्राणिहिंसाजनक शास्त्र या कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि या द्यूत-क्रीडाविशेष का नाम अष्टापद है, उसे सिखाना अनाचार है। नालिका--द्यूत का ही एक विशेष प्रकार जिसमें पासों को नालिका द्वारा डालकर जुमा खेला जाता है / छत्रधारण-(निष्प्रयोजन) वर्षा, आतप, महिमा, शोभा (बड़प्पन)-प्रदर्शन आदि कारणों से छत्र (छाता) धारण करना अनाचार है, किन्तु स्थविरकल्पी साधु के लिए प्रगाढ़ रोग आदि की अवस्था में या स्थविर (वृद्ध-अशक्त एवं ग्लान) के लिए छत्र-धारण करना अनाचार नहीं, यह अपवाद है। चैकित्स्य-अर्थात् व्याधि का प्रतीकार, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण आदि शास्त्रों का मुख्य स्वर निम्रन्थ साधुसाध्वियों के लिए चिकित्सा न करने, कराने तथा चिकित्सा का अभिनन्दन तक न करने का रहा है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि श्रमणोपासक के लिए बारहवें व्रत में साधु को औषध-भैषज्य से भी प्रतिलाभित करने का विधान है। यदि चिकित्सा करनाकराना अनाचीर्ण है तो यत्र-तत्र निर्ग्रन्थों के औषधोपचार एवं रोगशमन की चर्चा मिलती है, उसके साथ इसकी संगति कैसे होगी ? अतः परम्परागत अर्थ इस प्रकार किया गया कि जिनकल्पी मुनि के लिए तो चिकित्सा कराना निषिद्ध है, किन्तु स्थविरकल्पी के लिए विधिपूर्वक निरवद्य उपचारों से 21. (क) हारि वृत्ति. पृ. 117, (ख) निशीथ. 13 / 31 से 38 गा. 22. (क) अष्टापदं धू तम्, अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयम् / --हा. वृत्ति. 117 पृ. (ख) 'अट्ठावयं न सिक्खिज्जा"। --सूत्र कृ. टीका 29 / 17, पत्र 181 (ग) निशीथ भाष्य गा. 428 पृ. (घ) हा. टी. पृ. 117 23. (क) प्रातपादिनिवारणाय छत्र"तदेतत्सर्व कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् / - सूत्र. 119 / 18 टीका (ख)छत्रस्य लोकप्रसिद्धस्य च धारगमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति प्रागारलानाद्यालम्बनं मक्त्वा अनाचरितम् / —हा. टी. पत्र 117 (ग) 'अकारणे धारिउं न कप्पइ, कारणेण पुण कप्पति' ---जि. चणि पृ. 113 (घ) 'थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा। -व्यवहार 815 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org