________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा गृहि-अमत्र :---गृहस्थ के वर्तन में भोजन या पान करना या उसका उपयोग करता अनाचीर्ण इसलिए है. कि गृहस्थ बाद में उन वर्तनों को सचित्त पानी से धोए तो उसमें जल का प्रारम्भ होगा, जल यत्र-तत्र गिरा देने से अयतना होगी, जीवहिंसा होगी। इसलिए गृहस्थों के बर्तन में भोजन-पान करने वाले को आचार-भ्रष्ट कहा है / दूसरे, गृहस्थ के बर्तन धातु के होते हैं, खो जाने या चुराये जाने पर उसकी क्षतिपूर्ति करना साधु के लिए कठिन होता है / 17 राजपिण्ड किमिच्छक : दो या एक अनाचारी : व्याख्या-मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से पाहार लेने में अनाचीर्ण इसलिए बताया है कि अनेक राजा अवती तथा मांसाहारी होते हैं / उनके यहाँ भक्ष्याभक्ष्य का विवेक प्रायः नहीं होता / दूसरे, राजपिण्ड अत्यन्त गरिष्ठ होता है, इस दृष्टि से मुनि के रसलोलुप तथा संयमभ्रष्ट होने का खतरा है। 'किमिच्छक' का अर्थ है-जिन दानशालाओं आदि में 'तुम कौन हो?, क्या चाहते हो ? इत्यादि पूछ कर पाहार दिया जाता है, उसे ग्रहण करना अनाचीर्ण है, क्योंकि एक तो उसमें उद्दिष्ट दोष लगता है, दूसरे भिक्षा के दोषों से बचने की सम्भावना नहीं रहती। दोनों चूणियों के अनुसार--राजपिण्ड और किमिच्छक, ये दो अनाचार न होकर, एक अनाचार है / राजा याचक को, वह जो चाहता है, देता है, वहाँ किमिच्छक-राजपिण्ड नामक अनाचार है / निशीयचणि में बताया है कि सेनापति, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी और सार्थवाहसहित जो राजा राज्यभोग करता है, उसका पिण्ड ग्रहण और उपभोग करने से चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है / संवाधन : संवाहन : अर्थ और प्रकार- इसका अर्थ है-मर्दन / यानी शरीर दाबना या दबवाना ये दोनों ही रागवर्द्धक हैं / इसके चार प्रकार हैं-अस्थि (हड्डी), मांस, त्वचा और रोम, इन चारों को सुखप्रद या आनन्दप्रद / ' सम्पच्छना : दो रूप : पांच अर्थ-(१) सम्पृच्छा--(क) गृहस्थ से अपने अंगोपांगों की सुन्दरता के बारे में पूछना, (ख) गृहस्थों से सावध-प्रारम्भ सम्बन्धी प्रश्न पूछना अथवा गृहस्थों से कुशलक्षेम पूछना, (ग) रोगी से तुम कैसे हो, कैसे नहीं ? इत्यादि कुशल प्रश्न पूछना; (घ) अमुक ने यह कार्य किया या नहीं ? यह दूसरे व्यक्ति (गृहस्थ) से पुछवाना, (2) संप्रोञ्छक या सम्प्रोञ्छणा -(च) शरीर पर गिरी हुई रज को पोंछना या पोंछवाना / इसे सावध, असत्य, विभूषा, आदि का पोषक होने से अनाचार कहा गया है / 20 17. (क) 'परमत्ते अन्नपाणं ण भुजे कयाइ वि।' --सूत्र. 119 / 20 (ख) दशवं. अ. 6 / 52 18. (क) दशव. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी) पृ. 39 (ख) "मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिडो। रापिंडे-किमिच्छए-राया जो जं इच्छति तस्स तं देति-एस रायपिंडो किमिच्छनी / तेहिं णियत्तणत्थं-एसणारक्खणाय एतेसिं अणातिण्णो।"-प्रगस्त्यचणि पृ. 60 (ग) जे भिक्खं रायपिंडे गेण्हति गेण्हत वा (भजात भजंतं वा) सातिउजति / (घ) दश. (मु. नथमलजी) प्र. 18 –निशीथ 911-2 19. संवाहणा नाम च उब्विहा भवति, तं० अद्विसुहा, मंससुहा तयासुहा रोमसुहा। ---जि. च. पृ. 113 20. (क) 'संपुच्छणा नाम अप्पणो अंगावयवाणि प्रापुच्छमाणो परं पुच्छइ / ' –जि. चू. पृ. 113 (ख) अहवा गिहीण सावज्जारम्भा कता पुच्छति। -अगस्त्य चणि पृ. 60 (ग) गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं -सू. 19 / 21 टीका (घ) अण्णे ग्लान पुच्छति-किं ते वट्टति / -सू. 19 / 21 चूणि / (ड) संपुच्छण णाम कि तत्कृतं, न कृतं वा पुच्छाति -सू. 119 / 21 चू. / (च) संपुछगो-कहिंचि अंगे श्यं पडित पुछति लहेति / -प. चू. पृ. 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org