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________________ [दशवकालिकसूत्र करना, बुझाना आदि भी ज्योति समारम्भ अनाचार के अन्तर्गत है; इनसे अग्निकायिक जीवों की हिंसा होती है। शय्यातरपिण्ड : (सेज्जायरपिंड) तीन रूप : अर्थ एवं व्याख्या-(१) शय्यातर--श्रमणवर्ग को शय्या देकर भवसमुद्र तरनेवाला, (2) शय्याधर-शय्या (वसति) का धारक (मालिक), और (3) शय्याकर-शय्या (उपाश्रय, स्थानक आदि) को बनाने वाला / 'शय्यातर' शब्द वर्तमान में प्रचलित है, उसका पिण्ड-पाहार इसलिए वर्जित एवं अनाचीर्ण बताया गया कि उस पर साधु को स्थान प्रदान करने के उपरांत आहारादि देने का भो बोझ न हो जाए तथा उसको साधुओं के प्रति अश्रद्धा अभक्ति न हो जाए। शय्यातर का आहार लेने से वह भक्तिवश साधु के लिए बनाकर दोषयुक्त आहार भी दे सकता है / अतः यह उद्गमशुद्धि प्रादि को दृष्टि से भी वर्जनीय है / शय्यातर किसे और कब से माना जाए? इस विषय में निशीथ भाष्य में विभिन्न प्राचार्यों के मतों का संकलन किया गया है, यथा-(१) उपाश्रय, स्थान या मकान का स्वामी या स्वामी की अनुपस्थिति में उसके द्वारा संदिष्ट मकान का संरक्षक / (2) उपाश्रय की प्राज्ञा देते ही शय्यातर हो जाता है, (3) गृहस्वामी के मकान के अवग्रह में प्रविष्ट होने पर (4) आंगन में प्रवेश करने पर, (5) प्रायोग्य तृण (घास) ढेला आदि की आज्ञा लेने पर, (6) उपाश्रय (स्थानक) में प्रविष्ट होने पर, (7) पात्रविशेष के लेने तथा कुलस्थापना करने (अपने गच्छ (कुल) के किसी साधु को ठहराने) पर, (8) स्वाध्याय प्रारम्भ करने पर, (8) उपयोग सहित भिक्षाचरी के लिए (10) उक्त स्थानक में भोजन प्रारम्भ करने पर, (11) पात्र प्रादि भंडोपकरण उपाश्रय (स्थान) में रखने पर, (12) देवसिक आवश्यक (प्रतिक्रमण) कर लेने पर, (13) रात्रि का पहला पहर बीत जाने पर, (14) रात्रि का द्वितीय प्रहर व्यतीत होने पर, (15) रात्रि का तीसरा प्रहर बीत जाने पर अथवा (16) रात्रि का चौथा पहर (उस मकान में) बीतने पर शय्यातर होता है / भाष्यकार के मतानुसार साधुवर्ग रात में जिस उपाश्रय में सोए, और अन्तिम आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया कर ले, उस मकान का स्वामी शय्यातर है / शय्यातर के यहां से प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र आदि अग्राह्य होते हैं, लेकिन उसके यहाँ से तृण (घास), राख, बाजोट, पट्टा, पटिया आदि लिये जा सकते हैं। 27. (क) 'जोई अम्गी, तस्स जं समारंभणं / ' –अग. चूणि पृ. 61 (ख) दशदै. 6-32-33, (ग) उत्तरा. 35-12 (घ) “पयण-पथावण-जलावरण-विद्धसणेहि अगणि ...." / " --प्रश्नव्या. प्रास्त्रव. 1-3 28. (क) 'शय्या वसतिः (पाश्रयः) तया तरति संमारमिति शय्यातरः-साधुवसतिदाता तत्पिण्डः / -हारि. वृत्ति, पत्र 117 (ख) जग्हा सेज पडमाणि छज्ज-लेपमादीहि धरेति तम्हा सेज्जाधरो, ग्रहवा सेज्जादाणपाहणतो अप्पाणं नरकादिसू पडतं धरेति ति मज्जाधगे। जम्हा सो सिज्जं करेति, तम्हा सो सिज्जाकरो भण्णति / सेज्जाए संरक्षणं संगो वणं जेग तरनि काउं, तेण सेज्जातरो।-निशोथ भाष्य 2 / 45-46, (ग) सेउनातरो प्रभू वा, पभुसदिट्ठो होति कातव्यो। -निशीय भाष्य गा. 1144 (घ) निशीथ भाष्य गा. 1146-47 (ङ) निशीथ भाष्य गा. 1148,1151,1154 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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