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________________ दिशवकालिकसूत्र 6. स्नान 7. गन्धः (सुगन्धित द्रव्य को सूंघना या लेपन करना) 8. माल्य (माला पहनना) 6. वीजन (-पंखा झलना) / / 2 / / [16] 10. सन्निधि—(खाद्य आदि पदार्थों को संचित करके रखना), 11. गहि-अमत्र (गृहस्थ के बर्तन में भोजन करना), 12-1 राजपिण्ड (मूर्धाभिषिक्त राजा के यहाँ से भिक्षा लेना, 12.2 किमिच्छक ('क्या चाहते हो?' इस प्रकार पूछ-पूछ कर दिया जाने वाला भोजनादि ग्रहण करना), 13. सम्बाधन--(अंगमर्दन, पगचंपी आदि करना), 14. दंतप्रधावन–(दांतों को धोना, साफ करना), 15. सम्पृच्छना (गृहस्थों से कुशल प्रादि पूछना, सावध प्रश्न करना); 16. देह-प्रलोकन (दर्पण आदि में अपने शरीर तथा अंगोपांगों को देखना) / / 3 / / [20] 17. अष्टापद (शतरंज खेलना), 18. नालिका (नालिका से पासा फेंक कर जुआ खेलना), 19. छत्रधारण-(बिना प्रयोजन के छत्रधारण करना), 20. चिकित्सा कर्म-(गृहस्थों को चिकित्सा करना अथवा रोगनिवारणार्थ सावद्य चिकित्सा करना-कराना), 21. उपानत् (पैरों में जते, मोजे, बूट या खड़ाऊँ पहनना). तथा 22. ज्योति-समारम्भ--(अग्नि प्रज्वलित करना) / / 4 / / [21] 23. शय्यातरपिण्ड-(स्थानदाता के यहाँ से आहार लेना), 24. आसन्दी-(बेंत की या अन्य किसी प्रकार की छिद्र वाली लचोली कुर्सी या पाराम कुर्सी अथवा खाट, मांचे आदि पर बैठना), 25. पर्यंक (पलंग, ढोलया, या स्प्रिगदार तख्त आदि पर बैठना, सोना), 26. गहान्तर बद्या-(भिक्षादि करते समय गहस्थ के घर में या दो घरों के बीच में बैठना), और 27. गात्रउदवर्तन (शरीर पर उबटन पीठी आदि लगाना) / / 5 / / [22] 28. गृहि-वैयावृत्य-(गृहस्थ की सेवा-शुश्रूषा करना, या गृहस्थ से शारीरिक सेवा लेना) 29. प्राजीवत्तिता-(शिल्प, जाति, कुल, गण और कर्म का अवलम्बन लेकर पाजीविका करना या भिक्षा लेना) 30. तप्ताऽनिर्वृतभोजित्व-(जो आहारपानी अग्नि से अर्धपक्व या प्रशस्त्रपरिणत हो, उसका उपभोग करना) 31. प्रातुरस्मरण-(आतुरदशा में पूर्वभुक्त भोगों या पूर्वपरिचित परिजनों का स्मरण करना) / / 6 / / [23] 32. अनिर्वतमूलक-(अपक्व सचित्त मूली), 33 (अनिर्वत) श्रृंगबेर-(अदरख). 34. (अनिवृत्त) इक्षुखण्ड ---(सजीव ईख के टुकड़े लेना), 35. सचित्त कन्द-(सजीव कन्द), 36. (सचित्त) मूल (सजीव मूल या जड़ी लेना या खाना) 37. आमक फल (कच्चा फल), 38. (प्रामक) बोज (अपक्व बीज लेना व खाना) / / 7 / / [24] 39. प्रामक सौवर्चल-(अपक्व-प्रशस्त्रपरिणत सैंचल नमक) 40. सैन्धव-लवण (अपक्व सैंधानामक), 41. रुमा लवण (अपक्व रुमा नामक नमक). 42. सामुद्र (अपक्व समुद्री नमक), 43. पांशु-क्षार (अपक्व ऊषरभूमि का नमक या खार), 44. काल-लवण (अपक्व काला नमक लेना व खाना) / / 8 / / [25] 45. धूमनेत्र अथवा धूपन-(धूम्रपान करना या धूम्रपान को नलिका या हुक्का आदि रखना, अथवा वस्त्र, स्थान आदि को धूप देना); 46. वमन (औषध आदि ले कर वमन -के करना), 47. बस्तिकर्म (गुह्यस्थान द्वारा तेल, गुटिका या एनिमा अादि से मलशाधन करना), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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