________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा] 48. विरेचन (बिना कारण औषध आदि द्वारा जुलाब लेना), 46. अंजन (आँखों में अंजन-सुरमा या काजल आदि प्रांजना या लगाना), 50. दंतवन-दांतुन करना, अथवा दांतों को मिस्सी आदि लगाकर रंगना), 51. गात्राभ्यंग-(शरीर पर तेल आदि की मालिश करना), और 52. विभूषण (शरीर की वस्त्राभूषण आदि से साजसज्जा-विभूषा करना) / / 9 // विवेचन औद्देशिक आदि 52 अनाचरित-प्रस्तुत 8 गाथाओं (2 से लेकर 9 गा. तक) में 'प्रौद्देशिक' से लेकर 'विभूषण' तक साधु-साध्वियों के लिए अनाचरणीय, अग्राह्य, असेव्य 52 अनाचीणों का उल्लेख किया गया है। औद्देशिक प्रादि शब्दों की व्याख्या-प्रौद्देशिक व्याख्या-निर्ग्रन्थ साधुसाध्वी को अथवा परिव्राजक श्रमण, निर्ग्रन्थ, तापस आदि सभी को दान देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, पानी, वस्तु या मकान आदि प्रौद्देशिक कहलाता है। इस प्रकार का उद्दिष्ट भोजनादि निर्ग्रन्थ साधुसाध्वियों के लिए अग्राह्य और असेव्य होता है। कोतकृत : दो अर्थ-(चूणि के अनुसार-जो वस्तु खरीद कर दी जाए, (2) वृत्ति के अनुसार-जो वस्तु साधु के लिए खरीदी गई हो, वह क्रीत और जो खरीदी हुई वस्तु से कृत-बनी हुई हो, वह क्रीतकृत / क्रीतकृत दोष साधु के लिए उसमें होने वाली हिंसा की दृष्टि से वर्जनीय है।' नियाग-दोष : कहाँ और कहाँ नहीं ? --वैसे तो पाचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि में नियागशब्द का प्रयोग मोक्ष, संयम या मोक्षमार्ग अर्थ में हुअा है, परन्तु अनाचार के प्रकरण में नियाग एक प्रकार का आहार-ग्रहण से सम्बन्धित दोष है, जिसका चूणियों और टीका में अर्थ किया गया है-अादरपूर्वक निमंत्रित होकर किसी एक नियत घर से प्रतिबद्ध होकर प्रतिदिन भिक्षा लेना। जैसे--किसी भावुक भक्त ने साधु से कहा—'भगवन् ! आप मेरे यहाँ प्रतिदिन भिक्षा लेने का अनुग्रह करना' इसे स्वीकार कर भिक्षु उस भिक्षा को ग्रहण करता है वहाँ नियाग-नित्यपिण्ड दोष है। निमंत्रण में साध को आहार अवश्य देने की बात होने से स्थापना, प्राधाकर्म, क्रीत और प्रामित्य (उधार लेना) न्यौता देने वाले गृहस्थ के प्रति रागभाव, न देने वाले के प्रति द्वेषभाव आदि दोषों की संभावना होने से नियाग को दोष बताया है। निशीथ सूत्र में 'नियाग' के बदले 'नित्यप्रग्रपिण्ड' (णितिय अग्गपिण्डं) का प्रायश्चित्त बताया है। वहाँ आमंत्रण और प्रेरणापूर्वक वादा करके जो नित्य अग्र (सर्वप्रथम दिया जाने वाला) पिण्ड लिया जाता है, वह अग्राह्य एवं प्रायश्चित्तयोग्य दोष है, किन्तु सहज भाव से भिक्षा में प्राप्त भोजन नित्य लिया जाए तो नित्यपिण्ड दोष नहीं माना जाता / नियाग का अनाचार प्रकरण में शब्दशः अर्थ होता है-~-नि+याग, अर्थात् जहाँ यज-दान 8. (क) "उद्दिस्स कज्जइ तं उद्दे सियं साधुनिमित्त प्रारम्भोत्ति वुत्तं भवति / " ---जि. चू. पृ. 111 (ख) उद्दे सियति उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्दे शस्तत्र भवमोद्द शिकम् / हारिवृत्ति. पत्र 116 9. (क) कोतकडं-जं किणिऊण दिज्जति ।--अगस्त्य चूणि. पृ. 60 (ख) क्रयणं क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः / साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते तेन कृतं कीतकृतम् / -हारि. वृत्ति, पत्र 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org