SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [दशवकालिकसूत्र 'ताइणं' : तोनरूप--(१) त्रायिणाम् ---जो शत्रु से अपनो और दूसरों को रक्षा करते हैं; (2) आत्मा को दुर्गति से बचाने के लिए रक्षणशील (3) सदुपदेश से दूसरों को प्रात्मा की रक्षा करने वाले ; उन्हें दुर्गति से बचाने वाले / (4) जोवों को आत्मवत् मानते हुए जो उनको हिंसा से विरत हैं, वे। (5) त्रातृणाम्-त्राता-सुसाधु / (6) तायिनाम--सूदष्ट मार्गों को देशना देकर शिष्यों को रक्षा करने वाले, (7) तय गतो धातु से, तायो-मोक्ष के प्रति गमनशील / निग्गंथाणं : व्याख्या--(१) जैनमुनियों के लिए आगमिक और प्राचीनतम शब्द : निर्ग्रन्थ है, (2) ग्रन्थ-बाह्याभ्यन्तर परिग्रह, से सर्वथा मुक्त। (3) जो अष्टविध कर्म, मिथ्यात्व, अविरति, एवं दुष्ट मन-वचन-काययोग हैं, उन पर विजय पाने के लिए निश्छल रूप से सम्यक् प्रयत्न करता है, वह निर्ग्रन्थ है / (4) जो एकाको (राग-द्वेषरहित होने से), बुद्ध, संछिन्नस्रोत, सुसंयत, सुसमित, सुसमाहित, सुसामायिक, आत्मप्रवादज्ञाता, विद्वान्, बाह्य आभ्यन्तर दोनों ओर से छित्रस्रोत, धर्मार्थों, धर्मवेत्ता, नियागप्रतिपन्न (मोक्ष के प्रति प्रस्थित) साम्याचारो, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य ओर ममत्वरहित (निर्मम) है / वह निर्ग्रन्थ कहलाता है / ' महेसिणं : दो रूप : दो अर्थ-(१) महषि-महान् ऋषि, (2) महेषो-महान् मोक्ष को एषणा करने वाला। निम्रन्थ-महषियों के लिए ये अनाचरणोय क्यों?—ये कार्य निग्रन्थ महर्षियों के लिए अयोग्य या अनाचरणोय क्यों हैं ? इसका उत्तर प्रस्तुत गाथा में निग्रन्थ के लिए प्रयुक्त महर्षि, संयम में सुस्थित, विप्रमुक्त और त्रायी विशेषणों में है। निर्ग्रन्थ महान् (मोक्ष) की खोज में रत रहते हैं, वे महाव्रतो ओर सर्व संयम में सुस्थित एवं विप्रमुक्त होते हैं, वह बायो-अहिंसक होते हैं / ज्ञानाचारादि पंचाचारों में हो अहोरात्र लोन रहते हैं. तथा (स्त्रो साधिका पुरुष कथा से) स्त्रोकथा, देशकथा, 4. (क) शत्रोः परमत्मानं च त्रायंत इति त्रातारः। -जि. चूणि, पृ. 111 / / (ख) आत्मानं पातु शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा वायी। --सूत्र. 14 / 16 वृत्ति, पत्र 247 (ग) तायते, त्रायते वा रक्षति दुर्गतेरात्मानम्, एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी त्रायो वेति / उत्तरा, 814 टीका पृ. 201 (घ) 'पाणे य नाइवाएज्जा से समिएत्ति वुच्चई ताई।' –उत्तरा. 8 / 9 (ङ) त्रातृभिः साधुभिः / हा . टी. प. 201 / तायः सुदृष्टमार्गोक्तिः सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः / -हा. टी. प. 262 (च) तायी=मोक्षं प्रति गमनशील: / -सूत्र. 206 / 24 टीका प. 396 5. (क) दशव. (मु. नथ.) पृ. 49 (ख) ग्रन्थः कर्माष्टविध मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च / तज्जयहेतोरशठं संयतते यः स निग्रन्थः / ---प्रशमरति श्लो. 142 (ग) एत्थ वि णिग्गथे "णिग्गंथेति वुच्चे। ---सू. 1166 / 6 6. (क) महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयः यतयः / -हा. टी. प. 116 (ख) महानिति मोक्षस्तं एसंति महेसिणो। -प्र. च. पृ. 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy