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________________ तइयं अज्झयणं : तृतीय अध्ययन खुड्डियायारकहा : क्षुल्लिकाचार-कथा निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण 17. संजमे सुट्टिनप्पाणं विप्पमुक्काण ताइणं / तेसिमेयमणाइण्णं निग्गंथाण महेसिणं // 1 // [17], जिनकी आत्मा संयम में सुस्थित (सुस्थिर) है; जो (बाह्य-आभ्यन्तर-परिग्रह से) विमुक्त हैं; (तथा) जो (स्व-पर-प्रात्मा के) त्राता हैं; उन निम्रन्थ महषियों के लिए ये (निम्नलिखित) अनाचीर्ण ( = अनाचरणीय, अकल्प्य, अग्राह्य या असे व्य) हैं / / 1 / / विवेचन-ये अनाचीर्ण किनके लिए ?-प्रस्तुत प्रथम गाथा में उन महर्षियों के लिए ये अनाचरणीय (अनाचार) बताए गए हैं, जो संयम में सुस्थित हैं, परिग्रहमुक्त हैं, स्वपरवाता हैं और निर्ग्रन्थ हैं। ये विशेषण परस्पर हेतु-हेतुमद्भावक्रिया से युक्त प्राशय यह है कि यदि निर्ग्रन्थ साधु वर्ग (साधु-साध्वी) की आत्माएँ संयम में सुस्थिर होंगी तो वे सर्व (सांसारिक) संयोगों, संगों या साधनों से मुक्त हो सकेंगी। जो साधु-साध्वी सांसारिक (बाह्य-प्राभ्यन्तर पार ग्रह-) बन्धनों से मुक्त होंगे, वे ही स्व-पर के रक्षक हो सकेंगे और जो स्वपर के रक्षक होंगे, वे ही महर्षिपद के योग्य हो सकेंगे।' ___ संजमे सुट्टि-अप्पाणं : भावार्थ-जिनकी प्रात्मा संयम (17 प्रकार के संयम अथवा पंचास्रवविरमण, पंचेन्द्रिय निग्रह, चार कषाय-विजय एवं दण्डप्रयत्यागरूप संयम) में भलिभाँति स्थित है। विप्पमुक्काण : विप्रमुक्त विविध प्रकार से--तीन करण तीन योग के सर्वभंगों से, प्रकर्ष रूप से-तीव्रभाव से / बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित (मुक्त), अथवा सर्वसंयोगों-वन्धनों से मुक्त, या सर्वसंग-परित्यागी (माता-पिता प्रादि कुटम्ब तथा परिजनों की प्रासक्ति से रहित अथवा शरीरादि के ममत्व से रहित)। 1. दशव. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी) पृ. 35 2. (क) शोभनेन प्रकारेण अागमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः। -हारि, वृत्ति, पत्र 116 (ख) दशवै. (प्राचारमणिमंजूषा टीका) भा. 1, पृ. 153 3. (क) विविधं अनेकैः प्रकार:-प्रकर्षण-भावसारं मुक्ताः परित्यक्ता बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेनेति विप्रमुक्ताः / हारि. वृत्ति, पत्र 116 (ग) विप्पमुक्काण-अभितर-बाहिर-गंथ-बंधण विविहप्पगार भूक्काणं विष्पमुक्काणं ।—अगस्त्य. चणि, पु. 59 (ख) 'संजोगा विप्पमुक्कस्स...' –उत्तरा. अ. 111 (घ) 'सव्वयो विप्पमुक्कस्स"।' 'सब्वसंगविनिम्मुक्के""' -उत्तरा. ग्र, 9 / 16, 18153 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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