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________________ 48] [दशवकालिकसूत्र * जिसकी आत्मा संयम में सुस्थित होती है, धर्म में जिसकी धृति होती है, अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म जिसके जीवन में रम जाता है, वही प्राचार को निभाता है और अनाचार से अपने आपको बचाता है / संयम में स्थिरता, अहिंसादि रूप धर्म में धृति और प्राचार का परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है / ' * आचार और अनाचार की परिभाषा शास्त्रीय दृष्टि से इस प्रकार होती है-जो अनुष्ठान या प्रवृत्ति मोक्ष के लिए हो, या जो आचरण या व्यवहार अहिंसादि-धर्म से सम्मत एवं शास्त्रविहित हो, वह प्राचार है / प्राचार का प्रतिपक्षी, या प्राचार के विपरीत जो हो वह अनाचार है। शास्त्रों में आचरणीय वस्तु पांच बताई हैं--१. ज्ञान, 2. दर्शन, 3. चारित्र, 4. तप और 5. वीर्य / इसलिए आचार के 5 प्रकार बनते हैं-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपप्राचार और वीर्याचार / इसलिए प्राचार-अनाचार का लक्षण यह भी हो सकता है कि जो अनुष्ठान, प्राचरण या व्यवहार ज्ञानादि पंचविध प्राचारों के अनुकूल हो वह प्राचार या प्राचीर्ण है, और जो इनसे प्रतिकूल हो, वह अनाचार या अनाचीर्ण है। प्राचार धर्म या कर्तव्य है, जब कि अनाचार, अधर्म या अकर्तव्य है। अनाचार का अर्थ होता है—निषिद्ध अ कर्म, परिज्ञापूर्वक प्रत्याख्यातव्य कर्म / शास्त्रकार ने 'तेसिमेयमणाइण्णं' (महषियों के लिए ये अनाचीर्ण हैं) कह कर संख्यानिर्देश के बिना अनाचारों का उल्लेख किया है। वृत्ति तथा दोनों चूणियों में भी संख्या का निर्देश नहीं है / हाँ, दीपिका में अनाचारों की 54 संख्या का उल्लेख अवश्य है / वर्तमान में अनाचारों की परम्परागत-मान्य संख्या 52 है। कहीं-कहीं अनाचारों की संख्या 53 भी बताई गई है। किन्तु संख्या का भेद तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। 53 की परम्परा वाले 'राजपिण्ड' और 'किमिच्छक' को एक मानते हैं, और 52 की परम्परा वाले 'प्रासन्दी' तथा पर्यंक को, और गात्राभ्यंग तथा विभूषण को एक-एक अनाचीर्ण मानते हैं / * अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'प्रौद्देशिक' से लेकर 'विभूषण' तक की प्रवृत्तियों को अनाचार मानने के कारणों का निर्देश भी किया है / 6. संजमे सुट्टिअप्पाणं "तेसिमेयमणाइण्णं / -दशवै. मूलपाठ अ. 3 गा. 1 7. (क) धम्मे धितिमतो पायारसूट्रितस्स फलोवदरिसणोवसंहारे। -प्रग. चरिण, पृ. 49 (ख) तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा / स एव धृतिमान्, धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः / —हारि. वृत्ति, पत्र 100 8. दंसण-नाण-चरित्ते तव-पायारे य वीरियायारे / एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्यो / / -नियुक्ति गा. 181 9. सर्वमेतत् पूर्वोक्त-चतुपंचाशद् भेदभिन्नमौद्दे शिकादिकं यदनन्तरमुक्त तत्सर्वमनाचरितम् उक्तम् / —वही, पृ. 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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