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________________ 42] [दशवकालिकसूत्र है तो वह 'अात्मघाती' नहीं, अपितु 'व्रतरक्षक' कहलाता है। (2) भूखा मनुष्य चाहे कष्ट पा ले, परन्तु वह धिक्कारा नहीं जाता, किन्तु वमन किये हुए को खाने वाला धिक्कारा जाता है, घृणा का पात्र बनता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति शीलभंग करने की अपेक्षा मृत्यु को अंगीकार कर लेता है, वह एक बार ही मृत्यु का कष्ट महसूस करता है, किन्तु अपने गौरव तथा श्रमणधर्म की रक्षा कर लेता है, परन्तु जो परित्यक्त (वान्त) भोगों का पुन: उपभोग करता है, वह अनेक बार धिक्कारा जाकर बार-बार मृत्यु तुल्य अपमान अनुभव करता है। अतः कहा गया कि-"मर्यादा का अतिक्रमण करने की अपेक्षा तो मरना श्रेयस्कर है।' 4' ___'अहं च भोगरायस्स०' इत्यादि पाठ : दो अभिप्राय-प्रस्तुत 8 वी गाथा में राजीमती ने अपने और रथनेमि के कुलों की उच्चता का परिचय देकर अकुलीन व्यक्ति का-सा अकार्य न करने की प्रबल प्रेरणा देते हए रथनेमि को संयम में स्थिर होने का उपदेश दिया है। 'भोगरायस्स' पद के 'भोगराजस्य' और 'भोजराजस्य' इन दोनों का षष्ठ्यन्तपद में रूपान्तर डॉ. जेकोबी ने सूचित किया है। किसी का मानना है-'भोगरायस्स और अंधकबहिणो' ये दोनों पद कुल के वाचक हैं / 42 दूसरा मत है---इन दोनों षष्ठयन्त पदों का सम्बन्ध किसके साथ है ? इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, इसलिए उपयुक्त मतानुसार कुल शब्दों का दोनों जगह अध्याहार किया जाता है / दूसरे मतानुसार दोनों षष्ठयन्त पदों का सम्बन्ध क्रमश: 'पुत्री' और 'पुत्र' शब्द से है, इनका भी अध्याहार किया गया इन पदों द्वारा कुल की निर्मलता एवं विशुद्धता अथवा उच्चता या प्रधानता की ओर रथनेमि का ध्यान खींचा गया है, क्योंकि शुद्ध कुलीन व्यक्ति प्रायः अकृत्य में प्रवृत्त नहीं होते। वे कष्टों के सामने दृढ़तापूर्वक डटे रहते हैं / वे स्वाभाविक रूप से धीर होते हैं। इसीलिए राजीमती ने कहा 'मा कुले गंधणा होमो'-अर्थात-"हम दोनों ही महाकुल में उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार गन्धन सर्प वमन किये हुए विष को पुनः पी लेता है, उसी प्रकार हम भी परित्यक्त भोगों का पुनः उपभोग करने वाले न हों।"४३ 'निहो' : अर्थ और अभिप्राय-यहाँ निभूत' पद का अर्थ है,—निश्चल चित्त वाला, अव्याक्षिप्त चित्त / जिसका चित्त निश्चल या स्थिर होता है, वही सर्वदुःखनिवारक संयम के विधि४१. (क) दशवै (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 28 (ख) दशवै. जि. च. 87 (ग) हारि. बृत्ति, पत्र 96 (घ) दशवं. (मुनि नथमलजी) पृ. 32-33 42. (क) दशवे. (संत बालजी) पु. 11 (ख) “तुमं च तस्स तारिसस्स अंधगवहिणो कुले पसूमो स मुद्दविजयस्स पुत्तो।" -जिन. चूणि, पृ. 88 (ग) हारि. वृत्ति. पृ. 97, उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृत्ति, अ. 22 / 43 गा. (घ) दशव. (प्राचार्य प्रात्मा.) पृ. 29 (ङ) दशवं. (मुनि नथमलजी) पृ. 33 43. (क) दशवं. (डॉ. जेकोबी), (प्राचार्य यात्मा.) पृ. 29, अर्धमागधी गुजराती कोप पृ. 12, 596 Jain Education International . For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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