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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्यपूर्वक] विधान या क्रियाकलाप का यथावत् पालन कर सकता है। व्याक्षिप्तचित्त वाला पुरुष धैर्यच्युत होकर संयम की विराधना कर बैठता है / इसलिए यहाँ 'निभृत' (निहुरो) पद दिया गया है।४४ 'हड' वनस्पति की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा-प्रस्तुत 6 वी गाथा में राजीमती ने संयम में स्थिरचित्त होकर रमण न करने वाले साधकों की अस्थिरतर दशा का निरूपण हड वनस्पति से तुलना करके किया है। ___ 'जा जा दिच्छसि नारीओ' आदि : तात्पर्य-इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि यह वसुन्धरा नाना स्त्रीरत्नों से परिपूर्ण है / यत्र-तत्र अनेक नारियाँ दृष्टिगोचर होंगी। यदि तुम उन कामिनियों को देख कर उनके प्रति अभिलाषा या अनुरक्ति करने लगोगे तो याद रखो, जिस प्रकार अबद्धमूल हड नामक समुद्रीय वनस्पति वायु के एक हलके-से स्पर्श से इधर से उधर बहने लगती है, उसी प्रकार तुम भी संयम में अबद्धमूल (अस्थिर) होने से संसार-समुद्र में प्रमादरूपी पवन से प्रेरित होकर चतुर्गत्यात्मक संसार में इधर से उधर भटकते रहोगे / अथवा संयम में अबद्धमूल होने से श्रमणगुणों से शून्य होकर संयम में अस्थिरात्मा केवल द्रव्यलिंगधारी हो जानोगे / 5 निष्कर्ष यह है कि जब साधक का मन विषयों की ओर आकृष्ट हो जाता है, तब वह एकाग्रता से हट कर अस्थिर एवं डांवाडोल हो जाता है। यों तो संसार के सभी इष्ट पदार्थ मन की | को बढ़ाने वाले है, परन्तु स्त्री उन सबमें प्रबल है; मोह और राग को उत्तेजक है। सुन्दर ललना के प्रति अनुराग और असुन्दर के प्रति घृणा-अरुचि / यही तो चंचलता या विषादमग्नता है / 43 हड : अनेक अर्थ-(१) हड–अबद्धमूल वनस्पतिविशेष, (2) समुद्रतटीय अबद्ध मूल वनस्पति, जिसके सिर पर अधिक भार होता है / समुद्रतट पर हवा का अधिक जोर होने से उसका पौधा उखड़ कर समुद्र में गिर कर वहाँ इधर-उधर डोलता रहता है। (3) वनस्पतिविशेष, जो द्रह, तालाब आदि में होती है, उसका मूल छिन्न होता है / (4) हट–जलकुभिका या जिसकी जड़ जमीन से न लगी हुई हो ऐसा तृणविशेष / (5) उदक में उत्पन्न वनस्पति / अथवा (6) साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक हढ नामक जीव / 44. दशवे. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी) पृ. 30 45. (क) दशवं. (मुनि नथमलजी) पृ. 35 (ख) सकलदुःखक्षय निबन्धनेषु संयमगुणेष्वबद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्य टिष्यसीति / -हारि. वृत्ति, पत्र 97 (ग) हढो वातेण य प्राइद्धोइप्रो-इओ य निज्जइ, तहा तुमंपि एवं करेंतो संजमे अबद्धमूलो समणगुण परिहीणो के वलं द्रव्यलिंगधारी भविस्ससि / -जिन, चूणि, पृ. 89 46. दशवकालिकसूत्रम् (प्राचार्य श्रीवात्माराजी) पृ. 30 47. (क) अबद्धमूलः वनस्पतिविशेषः (ख) दशवै. (जीवराज छलाभाई) पत्र 6 (ग) हडो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु छिण्णमूलो भवति। -जिन. चूणि पृ. 89 (घ) हट: जलकुम्भिका, अभूमिलग्नमूलस्तृणविशेषः। -सुश्रुत (सूत्रस्थान) 4417 पादटिप्पणी (ङ) प्रज्ञापना 1145, 1143; सूत्रकृ. 2 / 3 / 54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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