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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक] [41 को तिलांजलि देकर स्वाभिमान का त्याग करके परित्यक्त एवं दारुणदुःखमूलक विषयभोगों का पुनः कायरतापूर्वक सेवन करना चाहिए ? 30 धूमकेलं, दुरासयं जोइं, 'जलियं' : 'दुरासयं' के दो अर्थ हैं—(१) जिसका संयोग सहन करना दुष्कर हो, वह दुरासद, (2) चूणि के अनुसार-दहनसमर्थ / 'धूमकेतु' शब्द ज्योति (अग्नि) का पर्यायवाची है, उसका शब्दशः अर्थ होता है-धूम ही जिसका केतु (चिह्न) हो; ज्योति उल्कादिरूप भी होती है, इसलिए विशेष रूप से 'प्रज्वलित अग्नि' को सूचित करने के लिए 'धूमकेतु' विशेषण दिया है, अर्थात्-जिससे धूया निकल रहा है, वह अग्नि (प्रज्वलित ज्योति) / धूमकेउं आदि तीनों 'ज्योइं' के विशेषण हैं / इनका परस्पर विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध है।३८ / उपालम्भात्मक उपदेश-प्रस्तुत 7 वीं गाथा में राजीमती ने रथनेमि को उपालम्भपूर्वक समझाया है / इसमें राजीमती द्वारा धिक्कार, अपयशकामी तथा असंयमी जीवन जीने के लिए वमन किये हुए भोगों को पुन: सेवन करने की अपेक्षा मरण की श्रेयस्करता का प्रतिपादन किया गया है। __ जसोगामी : दो रूप : तीन अर्थ--(१) अयशस्कामिन-हे अपयश की कामना करने वाले ! (2) अयशस्कामिन-यश अर्थात् संयम, अयश अर्थात्-असंयम / हे असंयम के कामी! (3) यश. स्कामिन् हे यश की चाह वाले ! अथवा हे कामी ! तुम्हारे यश को धिक्कार है ! भावार्थ यह हैहे यश की चाह वाले ! तुम यश चाहते हो और तुम्हारा विचार इतना नीच है ! इसलिए तुम्हें धिक्कार है ! 36 'जो तं जीवियकारणा' : दो फलितार्थ (1) जिनदास महत्तरकृत चूणि के अनुसारकुशाग्र पर स्थित जलबिन्दु के समान क्षणभंगुर जीवन के लिए, (2) हरिभद्रसूरिकृत टीका के अनुसार असंयमी जीवन के लिए / 40 / 'सेयं ते मरणं भवे' : तात्पर्य-(१) मरण श्रेयस्कर इसलिए माना गया कि अकार्य सेवन से व्रतों का भंग होता है, इसकी अपेक्षा व्रतों की रक्षा करता हुआ साधक यदि मरण-शरण हो जाता 37. (क) अगस्त्य-च णि, पृ. 45, (ख) जिन. च णि, पृ. 87, (ग) हारि. वृत्ति, पृ. 95 (घ) दशव . (मु. नथमलजी) पृ. 32, (ङ) दशवं. (प्रा. प्रात्मारामजी, म.), पृ. 26 38. (क) दुरासदं--दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयते इति दुरासदस्त, दुरभिभवमित्यर्थः ।-हा. 5., पृ. 95 (ख) दुरासयो नाम डहणसमत्थत्तणं, दुक्खं तस्स संजोगो सहिज्जइ दुरासमो, तेण / -जि. च., प. 87 (ग) जोती अग्गी भण्णइ, धूमो तस्सेव परियायो, केऊ उस्सयो चिंधं वा सो धूमे केतू जस्स भवई धूमके ऊ / -जिन. च णि, पृ. 87 (घ) अग्नि धूमकेतु धूमचिह्न धूमध्वजं, नोल्कादिरूपम् / —हारि. वृत्ति, पत्र 95 39 (क) जिनदास. चणि, पृ. 58, (ख) हारि. वृत्ति, पत्र 96, (ग) यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते / हारि. बृत्ति, पत्र 96, (घ) दशवं. (आचार्य प्रात्मारामजी म.), प. 28 40. (क) "जो तुम इमस्स कुसग्गजलबिदुच चलस्स जीवियस्स अट्टाए।—जि. च ., पृ. 88 (ख) 'जीवितका रणात = असंयमजीवितहेतोः / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 96 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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