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________________ 40] [दशबंकालिकसूत्र 12. धिरत्थ तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। बंत इच्छसि आवेळ, सेयं ते मरणं भवे // 7 // 13. अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवण्हिणो / मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर // 8 // 14. जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि // 9 // [11] (राजीमती रथनेमि से-) "अगन्धनकुल में उत्पन्न सर्प प्रज्वलित दुःसह अग्नि (ज्योति) में कूद (प्रवेश कर) जाते हैं, (किन्तु जीने के लिए) वमन किये हुए विष को वापिस चूसने की इच्छा नहीं करते // 6 // " [12] हे अपयश के कामी ! तुझे धिक्कार है ! , जो तू असंयमी (अथवा क्षणभंगुर) जीवन के लिये वमन किये हुए (पदार्थ) को (वापिस) पीना चाहता है। इस (प्रकार के जीवन) से तो संयमपूर्वक तेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है / / 7 / / [13] मैं (राजीमती) भोजराज (उग्रसेन) की पुत्री हैं, और तू (रथनेमि) अन्धकवृष्णि (समुद्रविजय) का पुत्र है / (उत्तम) कुल में (उत्पन्न हम दोनों) गन्धन कुलोत्पन्न सर्प के समान न हों। (अतः) तू निभृत (स्थिरचित्त) हो कर संयम का पालन (आचरण) कर / / 8 / / [14] तू जिन-जिन नारियों को देखेगा, उनके प्रति यदि इस प्रकार रागभाव करेगा तो वायु से पाहत (अबद्धमूल) हड नामक (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थिरात्मा हो जाएगा / / 6 / विवेचन प्रस्तुत चार गाथाओं (11 से 14 तक) में संयम से अस्थिर होते हुए रथनेमि को संयम में स्थिरता के लिये साध्वी राजीमती द्वारा दिया गया प्रबल प्रेरक उपदेश है। अगन्धनकुल के सर्प का दृष्टान्तबोध-सर्प की दो जातियाँ होती हैं---गन्धन और अगन्धन / गन्धन जाति के सर्प मंत्रादि के बल से आकर्षित किये जाने पर विवश होकर उगले हुए विष को मुंह लगाकर वापिस चूस लेते हैं; अगन्धन जाति के सर्प प्राण गंवाना पसंद करते हैं, किन्तु उगले विष को वापिस नहीं पीते। इस दष्टान्त के द्वारा राजीमती रथनेमि से यह कहना चाहती है कि अगन्धनकूल का सर्प जिस किसी को डस लेता है, मंत्रबल से आकृष्ट किये जाने पर प्राता है. किन्त उगल उगला हुआ विष वापस नहीं चूसता, भले ही उसे धधकती हुई आग में कूद कर मर जाना पड़े। इसी प्रकार हे रथनेमि ! तुम्हें भी अगन्धन-सर्प की तरह वमन किये हुए काम-भोगों को पुनः अपनाना कथमपि श्रेयस्कर नहीं है / साथ ही इस गाथा द्वारा यह भी सूचित कर दिया है कि तुम्हें यह सोचना चाहिए कि अविरत और धर्मज्ञान-हीन तिर्यञ्च अगन्धन सर्प भी केवल कुल का अवलम्बन लेकर अपने प्राण होमने को तैयार हो जाता है, किन्तु उगले हुए विष को पुनः पीने जैसा घृणित काम नहीं करता। हम तो मनुष्य हैं, उच्चकुलीन हैं, धर्मज्ञ हैं, फिर भला, क्या हमें कुल और जाति की आन-मानमर्यादा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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