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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक] सुकुमारता-त्याग का और अन्तरंग कारण के रूप में रागद्वेष के त्याग का प्रासेवन करने से जब साधक काम-महासागर का अतिक्रमण कर लेगा, तब वह संसार में सुखी हो जाएगा / 34 'सम्पराए' का रूपान्तर होता है-सम्पराये / 'सम्पराय' शब्द के चार अर्थ होते हैं—संसार, परलोक, उत्तरकालभविष्य और संग्राम / इन चारों अर्थों के अनुसार इस वाक्य का अर्थ और प्राशय क्रमश: इस प्रकार होगा-(१) 'संसार में सुखी होगा', अर्थात् संसार दुःखों से परिपूर्ण है, परन्तु यदि तू कामनिवारण करके एवं दुःखों पर विजय प्राप्त करके चित्तसमाधि प्राप्त करने के पूर्वोक्त उपाय करता रहेगा तो मुक्ति पाने के पूर्व संसार में भी सुखी रहेगा। (2-3) परलोक में या भविष्य में सुखी होगा, इसका तात्पर्य यह है कि जब तक मुक्ति नहीं मिलती, तब तक प्राणी को विभिन्न गतियों-योनियों में जन्ममरण करना पड़ता है परन्तु हे कामविजयी साधक ! तू इन जन्म-जन्मान्तरों (सम्परायपरलोक या भविष्य) में देवगति और मनुष्यगति को प्राप्त करता हुमा उनमें सुखी रहेगा। (4) संग्राम में सुखी होगा / अर्थात्-ऐसा (पूर्वोक्त रूप से) भेद चिन्तन करके इष्टानिष्ट में या सुख-दुःख में सम रहने वाला स्थितप्रज्ञ साधक परीषह-उपसर्गरूप संग्राम में सुखी-प्रसन्न रह सकेगा।३५ भगवद्गीता में भी कहा है--जिसका मन दुःखों में अनुद्विग्न और सुखों में स्पृहारहित रहता है, उस प्रसन्नचेता स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के चित्त की प्रसन्नता से सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं 136 निष्कर्ष यह है कि अगर तू इन कामनिवारणोपायों को करता रहेगा, रागद्वेष त्याग कर मध्यस्थभाव प्राप्त करेगा, तो परीषहसंग्राम में विजयी बन कर सुखी हो जाएगा। कामपराजित रथनेमि को संयम में स्थिरता का, राजीमती का उपदेश 11. पक्खंदे जलियं जोइं धूमकेउं दुरासयं / नेच्छंति वंतयं भोत्तु कुले जाया प्रगंधणे // 6 // 34. (क) दशव . (प्राचार्य श्री प्रास्मारामजी) पृ. 25 (ख) तुलना कीजिए- यापूर्यमाणमचलप्रतिष्ठ समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् / तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी / / __-भगवद्गीता अ. 2 श्लो. 70 35. (क) 'सम्पराम्रो संसारो।'----अगस्त्य. च णि पृ. 45 (ख) सम्पर ईयते इति सम्परायः परलोकस्तत्प्राप्तिप्रयोजनः साधनविशेषः ।-कठोपनिषद् शांकरभाष्य 1 / 2 / 6 (ग) सम्पराये वि दुक्खबहुले देवमणुस्सेसु सुही भविस्ससि / - अग, च . पृ. 45 (घ) यावदपवर्ग न प्राप्स्यति तावत सुखी भविष्यमि। -हारि. व. पत्र 95 (ड) युद्ध वा संपरायो बावीसपरीसहोवसग्ग-जुद्धलद्धविजयो परमसुही भविस्ससि। -अ.णि पृ. 45 (च) सम्पराये-परीसहोपसग्गसंग्राम इत्यन्ये। -हारि. वृत्ति, पत्र 95 (छ) जुत्तं मण्णइ, जया रागदोसेसु मज्झत्थो भविस्ससि तो जियपरीसहसंपराओ सूही भविस्ससि त्ति / -~-जिन. च णि पृ. 86 36. भगवद्गीता न. 2, श्लो. 55, 65, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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