________________ [दशवकालिकसूत्र शब्द केवल आतापना लेने (धूप में तपने) के अर्थ में ही नहीं, किन्तु उसमें अनशन, ऊनोदरी आदि बारह प्रकार के तप भी समाविष्ट हैं, जो कायबलनिग्रह के द्वारा कामविजय में सहायक हैं / 26 (2) आतापना ले / सर्दी-गर्मी की तितिक्षा, अथवा शीतकाल में प्रावरण रहित होकर शीत सहन करना, ग्रीष्मकाल में सूर्याभिमुख होकर गर्मी सहन करना आदि सब आतापना है / सौकुमार्य-त्याग : कायबलनिग्रह का द्वितीय उपाय :-प्राकृत भाषा में सोउमल्ल, सोअमल्ल, सोगमल्लं, सोगुमल्लं ये चारों रूप बनते हैं, संस्कृत में इसका रूपान्तर होता है--सौकुमार्य / जो सुकुमार (पारामतलब, सुखशील, सुविधाभोगी, आलसी या अत्यधिक शयनशील और परिश्रम से जी चुराने वाला) होता है, उसे काम सताता है, विषयभोगेच्छा पीड़ित करती है / और वह स्त्रियों का काम्य हो जाता है / इसलिए कायबलनिग्रह के द्वितीय उपाय के रूप में शास्त्रकार कहते हैं-'चय सोगुमल्लं, अर्थात् सीकुमार्य का त्याग कर।" छिवाहि दोसं, विणएज्ज राग : लक्षण और भावार्थ-द्वेष के यहाँ दो लक्षण अभिप्रेत हैं--- (1) संयम के प्रति अरति, घृणा या अरुचि, और (2) अनिष्ट विषयों के प्रति घणा / इसी प्रकार राग के भी यहाँ दो लक्षण अभिप्रेत हैं--(१) असंयम के प्रति रति और (2) इष्ट विषयों के प्रति प्रीति, आसक्ति, अनुराग अथवा मोह / तात्पर्य यह है कि अनिष्ट विषयों के प्रति द्वेष का छेदन और इष्ट विषयों के प्रति राग का अपनयन करना चाहिए। राग और द्वेष, ये दोनों कर्मबन्धन के बीजमूलकारण हैं / जहाँ कामराग होगा, वहाँ अमनोज्ञ (विषयों) के प्रति द्वेष भी होगा / 32 कामविजय : दुखःविजय का कारण राग और द्वेष दोनों काम की उत्पत्ति के मूल कारण हैं। जब साधक इष्ट-अनिष्ट या मनोज्ञ-अमनोज्ञ आदि समस्त पर-वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष को त्याग देता है, तो काम के महासागर को लांघ जाता है-पार कर जाता है और काम के महासागर को पार करना ही वास्तव में दुःखों के (जन्म-मरण के महादःखरूप संसार के) सागर को पार कर जाना है। इसीलिए कहा गया है-काम-भोगों को अतिक्रान्त कर, तो दुःख अवश्य ही अतिक्रान्त होगा / 33 एवं सुही होहिसि संपराए : तात्पर्य और विभिन्न अर्थ— एवं' शब्द यहाँ पूर्वोक्त तथ्यों का सूचक है। अर्थात्-कामनिवारण के बाह्य कारणों के रूप में बताए हुए ग्रातापनादि तप एवं 29. (क) सो य न सक्कइ उवचियसरीरेण णिग्गहेतु तम्हा कायबलनिग्गहे इमं सुत्तं भण्णइ / (ख) एंगरगहणे तज्जाइयाण गहणं ति, न केवलं पायावयाहि--ऊणोदरियमवि करेहि। ---जित. चूणि. पृ. 8586 30. दश. (मुनि नथमलजी) पृ. 29 31. (क) सुकुमालस्स कामेहि इच्छा भवइ, कमणिज्जो य स्त्रीणां भवति सुकुमालः, सुकुमाल-भावो सोकमल्लं / -जिन. चुणि पृ. 86 (ख) सौकुमार्यात् कामेच्छा प्रवर्तते, योषितां च प्रार्थनीयो भवति / -हा, टी. पृ. 95 32. ते य कामा सद्दादयो विसया तेसु अणि? सु दोसो छिदियव्वो। इ8 सु वट्टतो अस्सो इव अप्पा विणयियव्वो। -जिन. चरिंग प्र. 86 33. दशवै. (मु. नथमलजी) पृ. 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org