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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक] करते-करते एक दिन उसके मन में पूर्व-भोग-स्मरणवश चिन्तन हुआ—“वह मेरी है, मैं भी उसका हूँ। वह मुझ में अनुरक्त है, फिर मैंने उसका व्यर्थ ही त्याग किया।" इस प्रकार सोच कर वह उस गाँव में पहुँचा, जहाँ उसकी भूतपूर्व पत्नी थी। उसने अपने भूतपूर्व पति को गाँव में आया देख पहचान लिया, परन्तु वह (साधक) अपनी भूतपूर्व पत्नी को पहचान न सका। अत: उसने पूछा-अमुक की पत्नी मर गई या जीवित है ?' संयम से विचलित उक्त साधक का विचार था कि यदि वह जीवित होगी तो प्रव्रज्या छोड दूगा, अन्यथा नहीं। स्त्री ने अनुमान लगाया कि मेरे प्रति मोहवश इन्होंने दीक्षा छोड़ दी तो हम दोनों संसार-परिभ्रमण करेंगे।' ऐसा सोच कर वह बोली-“वह तो दूसरे के साथ चली गई है।" उसकी चिन्तन-दिशा मुड़ी, मोह के बादल फटे, सोचने लगा-जिस स्त्री को मैं कामदृष्टि से देखता था, वह मेरी नहीं है, न ही मैं उसका हूँ। यह जो मंत्र मुझे सिखलाया गया था, वही ठीक है / तात्पर्य यह है कि जब मेरा उससे कुछ सम्बन्ध ही नहीं, तब फिर उस पर मेरा राग (मोह) करना व्यर्थ है। इस प्रकार परमसंवेग उत्पन्न हो जाने से वह पुनः संयम में स्थिर हो गया / 'इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं' : तात्पर्य-कदाचित् स्त्री या उस परवस्तु के प्रति मोहोदयवश कामराग, स्नेहराग या दृष्टि राग, इन तीनों में से किसी भी प्रकार का राग जागत हो जाए तो, उसे इस (पूर्वोक्त) प्रकार से दूर करे, उसका दमन करे, मन का निग्रह करे। अर्थात्-संयमी संयम में विषाद-प्राप्त प्रात्मा को इस प्रकार के चिन्तनमंत्र से पूनः संयम में प्रतिष्ठित करे / 27 संयमनिर्गत मन से कामरागनिवारण की बाह्यविधि-प्रस्तुत (५वीं) गाथा में रागनिवारण के अथवा पांचों इन्द्रियों एवं मन पर विजय पाने के, या भावसमाधि प्राप्त करने के चार बाह्य उपाय बताए हैं-(१) आतापना, (2) सौकुमार्यत्याग, (3) द्वेष का उच्छेद, (4) राग का अपनयन / स्थानांगसूत्र में मदनकाम (मैथुन) संज्ञा की उत्पत्ति चार कारणों से बताई गई है-(१) मांस-रक्त के उपचय (वृद्धि) से, (2) मोहनीय कर्म के उदय से, (3) तद्विषयक काम-विषय की मति से, और (4) काम के लिए उपयोग (बार-बार चिन्तन-मनन, स्मरण आदि) से / 28 मैथुनसंज्ञा की उत्पत्ति के उपयूक्त चारों कारणों से बचने के चार बाह्य उपाय हैं। आयावयाही : कायबलनिग्रह का प्रथम उपाय : व्यापक अर्थ-चूर्णिकार का कथन है कि (संयमनिर्गत) मन का निग्रह उपचित शरीर के कारण नहीं होता, अत: उसके लिए सर्वप्रथम कायबलनिग्रह के उपाय बताए गए हैं। अर्थात्-मांस और रक्त को घटाने का सर्वप्रथम उपाय बताया गया है-आयावयाहो / प्रायावयाही : दो अर्थ-(१) अपने को तपा, अर्थात् तप कर / 'आतापन' 26. (क) दशवं. हारि. वृत्ति, पत्र 94 (ख) दशवै. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी) पृ. 23 (ग) अयं ममेति मंत्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत् / अयमेव हि ना पूर्वः, प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित् / / 27. (क) दश. (मुनि नथमलजी) पृ. 28, (ख) दशव. (प्राचार्यश्री प्रा.) पृ. 23 28. चउहि ठाणेहिं मेहणसण्णा समुपज्जति, तं.-चितमंससोणियगए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएण, मतीए, तदट्ठोवयोगेणं / ---स्थानांग स्था. 4/581 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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