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________________ दशवकालिक सूत्र आत्मौपम्यभाव) से देख कर विचरण करते हुए, (2) प्रसंग-संगत अर्थ- रूप और कुरूप में, या इष्ट और अनिष्ट में समभाव रखते हुए-राग-द्वेष भाव न करते हुए अथवा समदृष्टिपूर्वक अर्थात् प्रशस्त ध्यानपूर्वक विचरण करता हुमा (मन) (3) अगस्त्य-णि के अनुसार--समया प्रेक्षया परिव्रजत : सम अर्थात् संयम, उसके लिए प्रेक्षा (अनुप्रेक्षा-चिन्तन) पूर्वक विचरण२२ करते हुए (साधक का)। सिया : स्यात्-कदाचित्, भावार्थ यह है कि प्रशस्तध्यान में या समदृष्टि से विचरण करते हुए भी हठात् मोहनीयकर्म के उदय से 13 मणो निस्सरई बहिद्धा : भावार्थ-मन (संयम से) बाहर निकल जाय / भावार्थ यह है कि श्रमण के मन के रहने का स्थान वस्तुतः संयम होता है / अतः कदाचित् मोहकर्मोदयवश भुक्तभोगी का पूर्वक्रीड़ा आदि के अनुस्मरण से तथा अभुक्तभोगी का मन कुतूहल आदि वश संयमरूपी गृह से बाहर निकल जाए, यानी मन नियंत्रण में न रहे / समूचे वाक्य का तात्पर्य यह कि श्रमण का साम्यदृष्टि या समभाव के चिन्तन में रहा हुआ मन कदाचित् मोहनीय कर्मोदयवश संयमरूपी घर से बाहर निकलने लगे, तो क्या कर्त्तव्य है ? इसे समझाने के लिए वृत्तिकार एक रूपक प्रस्तुत करते हैं / संक्षेप में वह इस प्रकार है-एक दासी पानी का घड़ा लेकर उपस्थानशाला के निकट से निकली / वहीं खेल रहे राजपुत्र ने कंकड़ फेंक कर बड़े में छेद कर दिया। दासी ने निरुपाय होकर तुरन्त ही गीली मिट्टी से धड़े के छेद को बंद कर दिया। इसी प्रकार संयमरूपी उपवन में रमण करते हुए यदि अशुभभाव संयमो के हृदय-घट में छेद करने लगे तो उसे प्रशस्तपरिणाम रूप मिट्टी द्वारा उस अशुभ भाव जन्य छिद्र को चारित्र-जल के रक्षणार्थ शीत्र ही बंद कर देना चाहिए / ___ मोहत्याग का उपाय : प्रशस्त परिणाम-शास्त्रकार इस प्रशस्त परिणाम के रूप में भेदचिन्तन प्रस्तुत करते हैं-न सा महं मोवि अहंपि तोसे / इसका सामान्य अर्थ तो मूल में दिया ही है, व्यापक अर्थ इस प्रकार होता है-वह (स्त्री या प्रात्मा से भिन्न परभावात्मक वस्तु) मेरी नहीं है, न ही मैं उसका हूँ। तलवार और म्यान की तरह आत्मा और देह को या देह से सम्बन्धित प्रत्येक सजीव-निर्जीव वस्तु को भिन्न-भिन्न मानना ही भेदविज्ञान का तत्त्वचिन्तन है / इस स्त्रीपरक भेदचिन्तन को सुगमता से समझाने के लिए चूणि में एक उदाहरण दिया गया है / उसका सारांश इस प्रकार है-एक वणिकपुत्र ने अपनी पत्नी से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की। फिर वह इस प्रकार रटन करता रहता--- "वह मेरी नहीं है, और न ही मैं उसका हूँ।" यों रटन 22. (क) 'समा णाम परमप्पाणं समं पासइ, णो विसमं, पेहा णाम चिन्ता भण्णइ।' -जिन. चू. पृ. 84 (ख) समया-प्रात्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया दृष्ट्या / हरि. टो. पत्र 93 (ग) अहवा 'समाय' समो-संजमो, तदत्थं पेहा-प्रेक्षा। अग. चूणि, पृ. 44 23. (क) सिय सद्दो आसंकावादी, 'जति' एतम्मि प्रत्ये वट्टति। -अग. चूणि, पृ. 44 (ख) 'स्यात्'---कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेः / (ग) “पसत्थेहि झाणठाणेहिं वट्ट'तस्स मोहणीयस्स कम्मस्स उदएणं / ' –जिन. चूणि, पृ. 84 24. बहिवा-बहिर्धा-बहिः-भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना, अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मनः-- अन्तकरणं, निःसरति =- निर्गच्छति, बहिर्धा = संयमगेहाद बहिरित्यर्थः / -हारि. वृत्ति, पत्र 94 25. हारि. वृत्ति, पत्र 94 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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