SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवकालिक में दस अध्ययन हैं। यह आगम विकाल में रचा गया जिससे इसका नाम दशवकालिक रखा गया। श्रुतकेवली पाचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र शिष्य मणक के लिए इस आगम की रचना की / वीरनिर्वाण 80 वर्ष के पश्चात् इस महत्त्वपूर्ण सूत्र की रचना हुई / इसमें श्रमणजीवन की प्राचारसंहिता का निरूपण है और यह निरूपण बहुत संक्षेप में किया गया है पर श्रमणाचार की जितनी भी प्रमुख बातें हैं, वे सभी इसमें आ गई हैं। यही कारण है कि उत्तरवर्ती नवीन साधकों के लिए यह आगम अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुग्रा है / इस आगम की रचना चम्पा में हुई है। प्रथम अध्ययन का नाम द्रमपूष्पिका है। पांच गाथाओं के द्वारा धर्म की व्याख्या, प्रशंसा और माधुकरी वृत्ति का निरूपण किया गया है। अतीत काल से ही मानव धर्म के सम्बन्ध में चिन्तन करता रहा है। धर्म की शताधिक परिभाषाएँ अाज तक निर्मित हो चकी हैं। विश्व के जितने भी चिन्तक हुए उन सभी ने धर्म पर चिन्तन किया पर जितनी व्यापक धर्म की परिभाषा प्रस्तुत अध्ययन में दी गई है, अन्यत्र दुर्लभ है / ध्रर्म यही है जिसमें अहिमा, संयम और तप हो / ऐसे धर्म का पालन वही साधक कर सकता है. जिसके मन में धर्म सदा अंगड़ाइयाँ लेता हो। धर्म प्रात्मविकास का साधन है। यही कारण है सभी धर्मप्रवन को ने धर्म की शरण में आने की प्रेरणा दी—'धम्म सरण गच्छामि', 'धम्म सरणं पवज्जामि', 'मामेकं शनणं ब्रज'। क्योंकि धर्म का परित्याग कर ही प्राणी अनेक प्रापदाएं वरण करता है / शान्ति का प्राधार धर्म है। जन्म, जान और मत्यु के महाप्रवाह में बहते हुए प्राणियों की धर्म रक्षा करता है। प्रत्येक वस्तु उत्पन्न होती है, जीणं होती है और नष्ट होती है। परिवर्तन का चक्र सतत चलता रहता है, किन्तु धर्म अपरिवर्तनीय है / वह परिवर्तन के चक्रव्यूह से व्यक्ति को मुक्त कर सकता है / कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसीलिए कहा था कि धर्म की पकड़ो। धर्म कभी भी अहित नहीं करता। धर्म से वैमनस्य, विरोध, विभेद आदि पैदा नहीं होते, वे पैदा होते हैं- सांप्रदायिकता से / सम्प्रदाय अलग है, धर्म अलग है / धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। इस अध्ययन में माधुकरी वृत्ति का सुन्दर विवेचन हुआ है / जीवन-यात्रा के लिए भोजन आवश्यक है / यदि मानव पूर्ण रूप से निराहार रहे तो उसका जीवन टिक नहीं सकता / उच्च साधना के लिए और कर्तव्यपालन के लिए मानव का जीवित रहना आवश्यक है। जीवन का महत्त्व सभी चिन्तकों ने स्वीकार किया है। जीवन के लिए भोजन आवश्यक है। किन्तु अात्मतत्त्व का पारखी साधक शरीर-यात्रा के लिए भोजन करता है। वह अपवित्र, मादक, तामसिक पदार्थों का सेवन नहीं करता / श्रमण का जीवन त्याग-वैराग्य का जीवन है। वह स्वयं सांसारिक कार्यों से सर्वथा अलग-थलग रहता है। वह स्वय भोजन न बनाकर भिक्षा पर ही निर्वाह करता है / जैन श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षकों की भांति नहीं होती। उसके लिए अनेक नियम और उपनियम हैं। वह किसी को भी बिना पीड़ा पहुंचाये शुद्ध सात्विक नव कोटि परिशुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षाविधि में भी सूक्ष्म अहिसा की मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखा गया है। द्वितीय अध्ययन का नाम श्रामण्यपूर्वक है / इस अध्ययन में ग्यारह गाथाएं हैं, जिनमें संयम में धृति का और उसकी साधना का निरूपण है / धर्म बिना धृति के स्थिर नहीं रह सकता / इस अध्ययन की प्रथम गाथा में कामराग के निवारण पर बल दिया है। प्रात्मपुराण में लिखा है—काम ने ब्रह्मा को परास्त कर दिया, काम से लिव पराजित हैं, विष्णु भी काम से पराजित हैं और इन्द्र को भी काम ने जीत लिया है।" कवीर ने भी 11. कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः / कामेन विजितो विष्णः, शक्रः कामेन निजितः / [10] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy