________________ सम्पादकीय पागम जैन साहित्य की अनमोल निधि और उपलब्धि है। अक्षर-देह से वह जितना अधिक विशाल और विराट है, उससे भी अधिक अर्थ-गरिमा की दृष्टि से व्यापक है। भगवती,' अनुयोगद्वार और स्थानांग: में 'आगम' शब्द शास्त्र के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। वहाँ पर प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार प्रमाण बताए हैं। पागम के भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किए है। लौकिक पागम महाभारत, रामायण प्रभृति ग्रन्थ हैं तो लोकोत्तर आगम आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा आदि हैं।४ / श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचनों को सूत्र रूप में संकलन और प्राकलन गणधरों ने किया / वह आगम अंगसाहित्य के नाम से विश्रु त हुग्रा / प्राचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य का विश्लेपण करते हुए लिखा है. --अंगप्रविष्ट वह है, जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में निर्मित हो, जो गणधरों के द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर तीर्थकरों के द्वारा प्रतिपादित हो और जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने से ध्रुव व दीर्घकालीन हो / अंगबाह्य आगम वह है, जो स्थविरकृत हो और जो बिना प्रश्न किए तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित हो / वक्ता के भेद की दृष्टि से आगम-साहित्य अंगप्रविष्ट और अंगवाह इन दो भागों में विभक्त किया है। प्राचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थ सिद्धि' में वक्ता के (1) तीर्थंकर, (2) श्र तकेवली, (3) पारातीय प्राचार्य, ये तीन प्रकार बताए हैं। आचार्य अकलङ्क ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है-पारातीय प्राचार्यों द्वारा निर्मित आगम , अंगप्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकल होने के कारण अंगबाह्य हैं।' नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों की एक लम्बी सची दी है। अंगबाह्य आगमों के प्रावश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त. कालिक, भेद किए हैं। दशवकालिक, यह अंगबाह्य आगम है और उत्कालिक है / जब आगमों के अंग, उपांग, मूल और छेद, ये चार विभाग किए गए तब दशवकालिक को मूल सूत्रों में स्थान दिया गया और इसका अध्ययन सर्वप्रथम आवश्यक माना गया है। दशवकालिक का महत्त्व, वह कहाँ से नियूंढ किया गया है, उसका नामकरण प्रभृति विषयों पर श्री देवेन्द्र मुनि जी ने अपनी प्रस्तावना में चिन्तन किया है, अतः प्रबुद्ध पाठक उसका अवलोकन करें। 1. भगवती 53 // 192 2. अनुयोगद्वार 3. स्थानांग 338-228 4. नन्दीसूत्र 71-72 5. आवश्यकनियुक्ति गाथा 192 6. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 552 7. नन्दी सूत्र 43 5. सर्वार्थ सिद्धि 1120 पूज्यपाद 9. तत्त्वार्थराजबातिक 1120 10. नन्दी सूत्र 79-84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org