________________ द्वितीय अध्ययन : चविंशतिस्तव] 121 . कतिपय शब्दों का स्पष्टीकरण--कित्तिय-पृथक-पृथक् नाम से कीर्तित अथवा स्तुत, वंदिय--वन्दित-मन वचन तथा काय से स्तुत, महिया--पूजित, ज्ञानातिशय आदि गुणों के कारण सब प्राणियों द्वारा सम्मानित / पूजा का अर्थ सत्कार एवं सम्मान करना है। आचार्यों ने पूजा के दो भेद किए हैं-द्रव्यपूजा एवं भावपूजा। प्रभु पूजा के लिये पुष्पों की आवश्यकता होती है, किन्तु वे निरवद्य अचित्त भाव-पुष्प ही होने चाहिये। इसके विषय में जैन-जगत् प्रसिद्ध प्राचार्य हरिभद्र ने अष्टक प्रकरण में प्रभुपूजा के योग्य भाव-पुष्पों का वर्णन इस प्रकार किया है अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंगता। गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते // -अष्टक प्रकरण 316 अर्थात्--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, भक्ति, तप एवं ज्ञान रूपी प्रत्येक पुष्प जीवन को महका देने वाला है / ये हृदय के भाव पुष्प हैं। प्रारुग्ग–अर्थात् प्रारोग्य-आत्म-स्वास्थ्य या प्रात्म-शांति / ग्रारोग्य दो प्रकार का होता है -द्रव्यारोग्य और भावारोग्य / द्रव्य-आरोग्य यानी ज्वर आदि रोगों-विकारों से रहित होना / भाव-आरोग्य यानी कर्म-विकारों से रहित होना / अर्थात् प्रात्म-शांति मिलना, आत्मस्वरूपस्थ होना या सिद्ध होना / प्रस्तुत-सूत्र में 'ग्रारोग्य' का मूल अभिप्राय भाव-आरोग्य से है / भाव-आरोग्य की साधना के लिए द्रव्य-ग्रारोग्य भी अपेक्षित है, क्योंकि जब तक शरीर एवं मन स्वस्थ नहीं होगा, तब तक आत्म-साधना का होना कठिन होगा, किन्तु वह यहाँ विवक्षित नहीं है। अथवा 'प्रारुम्गबोहिलाभ' पद का अर्थ है-प्रारोग्य अर्थात् मोक्ष के लिए बोधि सम्यग्दर्शनादि का लाभ / संसार-सागर से पार कराने वाला एवं दुर्गति से बचाने वाला धर्म ही सच्चा तीर्थ है / जो अहिंसा, सत्य प्रादि धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। चौबीसों ही तीर्थकरों ने अपने-अपने समय में धर्म की स्थापना की है, धर्म से डिगती हुई जनता को पुनः धर्म में स्थिर किया है। प्रस्तुत पाठ में अन्तिम शब्द आते हैं—सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु इसका अर्थ है-सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें। यहाँ शंका हो सकती है कि--सिद्ध भगवान् तो वीतराग हैं, कृतकृत्य हैं, किसी को कुछ देते-लेते नहीं, फिर उनसे इस प्रकार की याचना क्यों की गई है ? समाधान यह है कि वस्तुतः इसका आशय यह है कि भक्त भगवान् का पालम्बन लेकर ही सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। // द्वितीय आवश्यक समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org