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________________ 20] [आवश्यकसूत्र मरण-दोनों से सर्वथा मुक्त हैं, वे आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाने वाले धर्मप्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों // 5 // जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है और जो सम्पूर्ण लोक में सबसे उत्तम हैं, वे तीर्थकर भगवान् मुझे प्रारोग्य अर्थात् प्रात्म-स्वास्थ्य या सिद्धत्व अर्थात् प्रात्म-शान्ति, बोधि-सम्यक दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ तथा श्रेष्ठ समाधि प्रदान करें // 6 // जो चन्द्रमाओं से भी विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयंभूरमण जैसे महासमुद के समान गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि अर्पण करें, अर्थात् उनके पालम्बन से मुझे सिद्धि अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो / विवेचन-पहले अध्ययन में सावध योग की निवृत्ति रूप सामायिक का निरूपण करके अब चतुर्विशति स्तव रूप इस दूसरे अध्ययन में समस्त सावद्य योगों की निवृत्ति का उपदेश होने मे सम्यक्त्व की विशुद्धि तथा जन्मान्तर में भी बोधि और सम्पूर्ण कर्मों के नाश के कारण होने से परम उपकारी तीर्थकर भगवन्तों का गुण-कीर्तन अर्थात् स्तवन किया गया है / जो केवलज्ञान रूपी सूर्य अथवा ज्ञान के द्वारा देखा जाय उसे व्युत्पत्ति की उपेक्षा से 'लोक' कहते हैं। यहाँ जैन परिभाषा के अनुसार 'लोक' शब्द से पञ्चास्तिकाय का ग्रहण है। शास्त्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चतुर्विध लोक का भी कथन है / यहाँ इन सभी का ग्रहण समझ लेना चाहिये। इस समस्त लोक को प्रवचन रूपी दीपक द्वारा प्रकाशित करने वाले, प्राणियों को संसार छड़ाकर सूगति में धारण करने वाले, धर्म रूप तीर्थ की स्थापना करने वाले, रागादि कर्मशत्रुओं को जीतने वाले चौबीस तीर्थंकरों की मैं स्तुति करता हूँ। __इस प्रकार चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करने की सामान्य रूप से प्रतिज्ञा करने के पश्चात् नामग्रहणपूर्वक विशेष रूप से स्तुति की गई है। जो लोकालोक के स्वरूप को जानने वाले, परम पद को प्राप्त होने वाले. भव्य जनों के अाधारभूत, धर्म रूपी बगीचे को प्रवचन रूप जल से सींचने वाले तथा वृषभ के चिह्न से युक्त हैं, ऐसे श्री ऋषभदेव स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ / / __ जो रागद्वेष को जीतने वाले हैं तथा जब वे गर्भ में पाये तब चौपड़ खेलते समय माता की हार न होने से जिनका नाम 'अजित' पड़ा है, उन श्रीअजितनाथ को मैं वन्दन करता नन्त सुख स्वरूप हैं, और जिनके गर्भ में आते ही धान्यादि का अधिक संभव होने से दुभिक्ष मिटकर सुभिक्ष हो गया ऐसे श्री संभवनाथ को वन्दन करता हूँ। जो भव्य जीवों को हर्षित करने वाले हैं और गर्भ में आने पर जिनका इन्द्र ने बार-बार स्तवन-अभिनन्दन किया उन श्रीअभिनन्दन स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ। इसी प्रकार विभिन्न विशेषताओं से युक्त केवलज्ञानियों में श्रेष्ठ चौबीस तीर्थकर हैं, वे मुझ पर प्रसन्न हों / 'चउवीसंपि' में 'अपि' शब्द से महाविदेह क्षेत्र में विहरमान तीर्थकर ग्रहण किए गए हैं। उन सबको भी वन्दन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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