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________________ [आवश्यकसूत्र 12. स्वाध्याय के शास्त्रोक्त काल में स्वाध्याय न किया हो / 13. अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय किया हो / 14. स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न किया हो, उससे उत्पन्न हुआ मेरा सर्व पाप निष्फल हो / विवेचन—जो ज्ञान तीर्थकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण शंकारहित एवं अलौकिक है तथा भव्य जीवों को चकित कर देने वाला है अथवा जो ज्ञान अर्हन्त भगवान् के मुख से निकलकर गणधर देव को प्राप्त हा तथा भव्य जीवों ने सम्यक भाव से जिसको माना उसे 'पागम' कहते हैं। मूल पाठ रूप, अर्थ रूप एवं मूल पाठ और अर्थ-उभय रूप, इस तरह तीन प्रकार के भागमज्ञान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ। यदि सूत्र क्रमपूर्वक गया हो, यथा-'नमो रिहताण' की जगह 'अरिहताण नमो ऐसा पढ़ा हो / अक्षरहीन पढ़ा हो, जैसे 'अनल' शब्द का प्रकार कम कर दिया जाय तो 'नल' बन जाता है। तथा 'कमल' शब्द के 'क' को कम कर देने से 'मल' बन जाता है इत्यादि; इस विषय में विद्याधर और अभयकुमार का दृष्टान्त प्रसिद्ध है-- उड़ते-गिरते किसी विद्याधर के विमान को देखकर अपने पुत्र अभयकुमार के साथ राजा कने भगवान से पछाभन्ते ! यह विमान इस प्रकार उड-उड कर क्यों गिर रहा है? तब भगवान् ने फरमाया कि यह विद्याधर अपनी विद्या का एक अक्षर भूल गया है, जिससे यह विमान बिना पांख के पक्षी की तरह बार-बार गिरता है। ऐसा सुनकर राजा श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार ने अपनी पदानुसारिणी-लब्धि द्वारा उसके विमानचारण मंत्र को पूरा करके उसके मनोरथ को सिद्ध किया और उस विद्याधर से आकाशगामिनी विद्या की सिद्धि का उपाय सीख लिया। अधिक अक्षर जोड़कर पढ़ा जाए तो---यथा 'नल' शब्द के पहले 'अ' जोड़कर पढ़ा जाए तो 'अनल' बन जाता है, जिसका अर्थ अग्नि है / पद को न्यून या अधिक करके बोला गया हो, विनयरहित पढ़ा गया हो, योगहीन पढ़ा हो, उदात्तादि स्वर रहित पढ़ा हो, शक्ति से अधिक पढ़ाया हो, पढ़ा हो, प्रागम को बुरे भाव से ग्रहण किया हो / अकाल में स्वाध्याय किया हो और स्वाध्याय के लिए नियत काल में स्वाध्याय न किया हो, अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय किया हो,' स्वाध्याय के समय स्वाध्याय न किया हो तथा पढ़ते समय, विचारते समय ज्ञान तथा ज्ञानवन्त पुरुषों की अविनय-अाशातना की हो तो मेरा वह सब पाप निष्फल हो। // प्रथम सामायिकावश्यकं सम्पन्नम // 1. अस्वाध्याय के लिए देखिए परिशिष्ट / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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