________________ [आवश्यकसूत्र विशिष्ट शब्दों का अर्थ तिक्खुत्तो-त्रिकृत्वः-तीन बार। प्रायाहिणं-दाहिनी ओर से / इसका 'आदक्षिणं' संस्कृत रूप बनता है। पयाहिणं का संस्कृत रूप 'प्रदक्षिणम्' होता है / अर्थात् दाहिनी ओर से प्रदक्षिणापूर्वक / वंदामि-वन्दन करता हूँ। वन्दन का अर्थ है स्तुति करना / / नमसामि-नमस्कार करता हूँ / इसका संस्कृत रूप 'नमस्यामि' है / वन्दना और नमस्कार में अन्तर है / वन्दना अर्थात् मुख से गुणगान करना, स्तुति करना और नमस्कार अर्थात् काया से नम्रीभूत होना, प्रणमन करना / कल्लाणं-कल्याणं-कल्य अर्थात् मोक्ष प्रदान करने वाले या शांति प्रदान करने वाले / मंगलं-शुभ, क्षेम, प्रशस्त एवं शिव / आवश्यकनिर्यक्ति के आधार पर प्राचार्य हरिभद्र ने दशवकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा की टीका में लिखा है--- "मंग्यते-अधिगम्यते हितमनेन इति मंगलम्' अर्थात् जिसके द्वारा साधक को हित की प्राप्ति हो वह मंगल है। "मां गालयति भवादिति मंगलम्-संसारादपनयति" जो मुझे (अात्मा को) संसार के बन्धन से अलग करता है, छुड़ाता है, वह मंगल है। विशेषावश्यकभाष्य के प्रसिद्ध टीकाकार श्रीहेमचन्द्राचार्य कहते हैं-"मङ क्यते-प्रलंक्रियते प्रात्मा येनेति मंगलम्" जिसके द्वारा आत्मा शोभायमान हो / वह मंगल है। अथवा जिसके द्वारा स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त किया जाता है या पाप का विनाश किया जाता है, उसे मंगल कहते हैं। नमस्कारसत्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं / नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्यसाहूणं / भावार्थ-अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, मानव-लोक में विद्यमान समस्त साधुओं को नमस्कार हो। . एसो पंच नमोक्कारो, सव-पाव-प्पणासणो। मंगलाणं च सन्वेसि, पढमं हवइ मंगलं // भावार्थ उपर्युक्त पांच परमेष्ठी--महान् प्रात्माओं को किया हुआ यह नमस्कार सब प्रकार के पापों को पूर्णतया नाश करने वाला है और विश्व के सब मंगलों में प्रथम मंगल है। विवेचन-भारतीय-संस्कृति में जैनसंस्कृति का और जैनसंस्कृति में भी जैनधर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परा में नमस्कारमंत्र या नवकारमंत्र से बढ़कर दूसरा कोई मंत्र नहीं है। जैनधर्म अध्यात्म-प्रधान धर्म है। अत: उसका मंत्र भी अध्यात्मभावना से ओतप्रोत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org