________________ प्राकयकसूलम् गुरुवन्दन-सूत्र तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नमसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि मत्थएण वंदामि / भावार्थ-हे गुरु महाराज ! मैं अञ्जलिपुट को तीन बार दाहिने हाथ की ओर से प्रारंभ करके फिर दाहिने हाथ की ओर तक धुमाकर अपने ललाट प्रदेश पर रखता हुआ प्रदक्षिणापूर्वक स्तुति करता हूँ, पांच अंग झुकाकर वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सत्कार करता हूँ, (वस्त्र, अन्न आदि से) सम्मान करता हूँ, आप कल्याण-रूप हैं, मंगल-स्वरूप हैं, अाप देवतास्वरूप हैं, चैत्य अर्थात् ज्ञानस्वरूप हैं। अतः हे गुरुदेव ! मैं मन, वचन और शरीर से आपको पर्युपासना--सेवाभक्ति करता हूँ तथा विनय-पूर्वक मस्तक झुकाकर आपके चरण-कमलों में वन्दना करता हूँ। विवेचन---भारतीय संस्कृति में गुरु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यदि जीवन में सद्गुरु का सान्निध्य प्राप्त न हो तो प्रभु-दर्शन भी कठिन हो जाता है। प्रत्येक मंगलकार्य के प्रारंभ में भक्ति एवं श्रद्धा के साथ गुरु को वन्दन किया जाता है / एक दृष्टि से भगवान से भी सद्गुरु का महत्त्व अधिक है / एक वैदिक ऋषि ने तो यहाँ तक कहा है-भगवान् यदि रुष्ट हो जाय तो सद्गुरु बचा सकता है पर सद्गुरु रुष्ट हो जाय तो भगवान की शक्ति नहीं, जो उसे उबार सके / हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न वै शिवः / तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, गुरुमेव प्रसादयेत् // वस्तुतः सद्गुरु का महत्त्व अपरम्पार है। दीपक को प्रकाशित करने के लिये जैसे तेल की आवश्यकता है, घड़ी को चलाने के लिए चाबी की जरूरत है, शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए भोजन आवश्यक है, वैसे ही जीवन को प्रगतिशील बनाने के लिए सद्गुरु की आवश्यकता है / सद्गुरु ही जीवन के सच्चे कलाकार हैं। अतः गुरुदेव ही भव-सिन्धु में नौका स्वरूप हैं, जो भव्य प्राणियों को किनारे लगाते हैं / अज्ञानरूप अन्धकार में भटकते हुए प्राणी के लिए गुरु प्रदीप के समान प्रकाशदाता है। विश्व में गुरु से बढ़कर अन्य कोई भी उपकारी नहीं है। अनेक भक्तों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि- "गुरु न तजू हरि को तज डालू।" क्योंकि हिताहित का बोध कराने वाले गुरु ही होते हैं। ऐसे परम उपकारी गुरुदेव की चरण-वन्दना, सेवा, अर्चना आदि शिष्य समर्पण भाव से करे तब ही वह जीवन और जगत् का रहस्य समझ सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org