________________ संवत् 2007 में सन्मति ज्ञानपीठ प्रागरा से सामायिकसूत्र और श्रमणसूत्र हिन्दी विवेचन सहित प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संस्करण और सम्पादन समय-समय पर आवश्यकसूत्र पर बहुत लिखा गया है और विभिन्न स्थानों से उसका प्रकाशन भी हया है। उसी प्रकाशन की धवल परम्परा में प्रस्तुत प्रकाशन भी है। श्रमण संघ के युवाचार्य स्वर्गीय पण्डितप्रवर मधुकर मिश्रीमलजी महाराज की यह हादिक इच्छा थी कि प्रागमबत्तीसी का प्रकाशन हो। उनके संयोजकत्व और प्रधान सम्पादकत्व में आगम प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ। स्वल्प समय में ही अनेक प्रागमों के शानदार प्रकाशन हुए। पर परिताप है कि युवाचार्यश्री की कमनीय कल्पना उनके जीवनकाल में पूर्ण नहीं हो सकी। सन् 1983 में उनका स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से एक महामनीषी सन्तरत्न की क्षति हुई। उनकी हार्दिक इच्छा को मूर्त रूप देने का उत्तरदायित्व सम्पादक मण्डल और प्रकाशन समिति का था। प्रसन्नता है सम्पादक मण्डल और प्रकाशन समिति ने अपना उत्तरदायित्व निष्ठा के साथ निभाया है और अनेक मूर्धन्य मनीषियों के सहयोग से इस कार्य को सम्पन्न करने का संकल्प किया है। आवश्यकसूत्र के सम्पादन का श्रेय परम विदुषी साध्वीरत्न उमरावकँवरजी 'अर्चना' की सुशिष्या विदुषा महासती श्री सुप्रभाजी एम. ए., साहित्यरत्न, सिद्धान्ताचार्य को है। इसमें शुद्ध मूल पाठ, विशिष्ट शब्दों का अर्थ, भावार्थ और साथ ही आवश्यक विवेचन दिया गया है, अतएव यह संस्करण सर्वसाधारण के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। उन्होंने बहुत ही लगन के साथ इस ग्रन्थरत्न का सम्पादन किया है। साध्वी सुप्रभाजी उदीयमान लेखिका तथा विविध विषयों की ज्ञाता हैं। महामनीषी, प्रागमप्रकाशन माला के प्राण पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने अपनी कलम के स्पर्श से सम्पादन को निखारा है / भारिल्ल जी की पैनी दृष्टि से सम्पादन में चार-चांद लग गये हैं। आशा है अन्य आगमों की भांति यह पागम भी जनमानस में समारत होगा। ___ अावश्यकसूत्र पर बहुत ही विस्तार से प्रस्तावना लिखने का मेरा विचार था पर अन्यान्य ग्रन्थों के लेखन में व्यस्त होने से संपेक्ष में ही कुछ लिख गया है, उसका सारा श्रेय महामहिम विश्वसन्त अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज की महती कृपा-दृष्टि को है। उनकी महान कृपा से ही मैं लेखन के क्षेत्र में कुछ कार्य कर सका हूँ। आवश्यकसूत्र के रहस्य को समझने के लिये यह प्रस्तावना कुछ उपयोगी होगी तो मैं अपना श्रम सार्थक समगा। प्राज भौतिकवाद की आँधी में मानव बहिर्मुखी होता चला जा रहा है / वह अपने-आप को भूलकर पर-पदार्थों को प्राप्त करने के लिये ललक रहा है और उसके लिये अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार को अपना रहा है, जिससे वह स्वयं अशांत है, परिवार, समाज और राष्ट्र में सर्वत्र अशांति की ज्वाला धधक रही है। उससे मानव व्यथित है, समाज परेशान है और राष्ट्र चिन्तित है। यह प्रगति नहीं, उसके नाम पर पनपने वाला भ्रम है। आज आवश्यकता है, जो अतिक्रमण हुआ है उससे पुन: स्वभाव की ओर लौटने की। ओवश्यकसूत्र साधक को परभाव से हटाकर निजभाव में लाने का सन्देश प्रदान करता है। उस सन्देश को हम जीवन में उतार कर अपने को पावन बनाएँ, यही आन्तरिक कामना ! - देवेन्द्रमुनि शास्त्री जैन स्थानक वीरनगर, दिल्ली-७ 18-7-85 [ 63 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org