________________ प्रवचनसारोद्धार, 14 योगशास्त्र.१५ प्रादि ग्रन्थों में प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले साधक और ग्रहण कराने वाले साधक की योग्यता और अयोग्यता को लक्ष्य में रखकर चतुभंगी का प्रतिपादन किया है 1. प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला साधक भी विवेकी हो और प्रत्याख्यानप्रदाता गुरु भी गीतार्थ हो तो वह पूर्ण शुद्ध प्रत्याख्यान है। 2. प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला प्रत्याख्यान के रहस्य को नहीं जानता पर प्रत्याख्यान प्रदान करने वाला गुरु प्रत्याख्यान के मर्म को जानता है और वह प्रत्याख्यान करने वाले शिष्य को प्रत्याख्यान का मर्म सम्यक् प्रकार से समझा देता है तो शिष्य का प्रत्याख्यान सही प्रत्याख्यान हो जाता है। यदि वह उसके मर्म को नहीं समझता है तो उसका प्रत्याख्यान अशुद्ध प्रत्याख्यान है। 3. प्रत्याख्यान प्रदान करने वाला मुरु प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता है किन्तु जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रहा है, वह प्रत्याख्यान के रहस्य को जानता है, तो वह प्रत्याख्यान शुद्ध प्रत्याख्यान है। यदि प्रत्याख्यानज्ञाता गुरु विद्यमान हों, उनकी उपस्थिति में भी परम्परा भादि की दृष्टि से अगीतार्थ से प्रत्याख्यान ग्रहण करना अनुचित है। 4. प्रत्याख्यान ग्रहण करने वाला प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता और जिससे प्रत्याख्यान ग्रहण करना है, वह भी प्रत्याख्यान के रहस्य से अनभिज्ञ है तो उसका प्रत्याख्यान अशुद्ध प्रत्याख्यान है। षडावश्यक में प्रत्याख्यान सुमेरु के स्थान पर है। प्रत्याख्यान से भविष्य में आने वाली अव्रत की सभी क्रियाएं रुक जाती हैं और साधक नियमों-उपनियमों का सम्यक् पालन करता है। उत्तराध्ययन में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हए निम्न प्रकार बताये हैं 1. संभोग-प्रत्याख्यान'".-श्रमणों द्वारा लाये हुए आहार को एक स्थान पर मण्डलीबद्ध बैठकर खाने का परित्याग करना / इससे जीव स्वावलम्बी होता है और अपने द्वारा प्राप्त लाभ से ही सन्तुष्ट रहता है। 2. उपधि-प्रत्याख्यान'१०-वस्त्र आदि उपकरणों का त्याग करना। इससे स्वाध्याय प्रादि करने में विध्न उपस्थित नहीं होता। आकांक्षा रहित होने से वस्त्र प्रादि मांगने की और उनकी रक्षा करने की उसे इच्छा नहीं होती तथा मन में संक्लेश भी नहीं होता। 3. आहार-प्रत्याख्यान'""-याहार का परित्याग करने से जीवन के प्रति ममत्व नहीं रहता। निर्ममत्व होने से आहार के अभाव में भी उसे किसी प्रकार के कष्ट की अनुभूति नहीं होती। 4. योम-प्रत्याख्यान'"-मन, वचन और काय सम्बन्धी प्रवृत्ति को रोकना योग-प्रत्याख्यान है। यह 114. जाणगो जाणगसगासे, अजाणगो जाणगसगासे, जाणगो अजाणगसगासे, अजाणगो प्रजाणगसगासे / -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति 115. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति 116. उत्तराध्ययन 29 // 33 117 उत्तराध्ययन 29:34 118. उत्तराध्यन 29 / 35 119. उत्तराध्ययन 29:37 [ 52 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org