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________________ लगे, इसके लिये माधक' को सतत जागरूक रहना चाहिये। इसीलिये आवश्यक में छह प्रकार की विशुद्धि का उल्लेख है। ये विशुद्धियां निम्नानुसार हैं-..... 1. श्रद्धानविशुद्धि--पंच महाव्रत, बारह प्रत आदि रूप जो प्रत्याख्यान है, उसका श्रद्धा के साथ पालन करना। 2. ज्ञानविशुद्धि-जिनकल्प, स्थविरकल्प, मूलगुण, उत्तरगुण आदि जिस प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप है, उस स्वरूप को समीचीन रूप से जानना / 3. विनयविशुद्धि-मन, वचन और काया सहित प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान में जितनी वन्दनाओं का विधान है, उतनी वन्दना अवश्य करनी चाहिये। 4. अनुभाषणाशुद्धि-प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय सद्गुरु के सम्मुख विनय मुद्रा में खड़े रहकर शुद्ध पाठ का उच्चारण करे। 5. अनुपालनाशुद्धि-भयंकर वन में या दुर्भिक्ष आदि में या रुग्ण अवस्था में व्रत का उत्साह के साथ सम्यक् प्रकार से पालन करे। 6. भावविशुद्धि--राग-द्वेष रहित पवित्र भावना से प्रत्याख्यान का पाठ करना। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है कि प्रत्याख्यान में तीन प्रकार के दोष लगने की सम्भावना रहती है। अत: साधक को उन दोषों से बचना चाहिये। वे दोष इस प्रकार हैं 1. अमुक व्यक्ति ने प्रत्याख्यान ग्रहण किया है, जिसके कारण उसका समाज में प्रादर हो रहा है। मैं भी इसी प्रकार का प्रत्याख्यान करू', जिससे मेरा प्रादर हो। ऐसी राग भावना को लेकर प्रत्याख्यान करना। 2. मैं ऐसा प्रत्याख्यान करू' जिसके कारण जिन्होंने प्रत्याख्यान ग्रहण किया है, उनकी कीर्ति-कौमुदी धुंधली हो जाये। इस प्रकार दूसरों के प्रति दुर्भावना से उत्प्रेरित होकर प्रत्याख्यान करना। इस प्रकार के प्रत्याख्यान में तीव्र द्वेष प्रकट होता है। 3. इस लोक में मुझे यश प्राप्त होगा और परलोक में भी मेरे जीवन में सुख और शान्ति की बंशी बजेगी, इस भावना से उत्प्रेरित होकर प्रत्याख्यान करना। इसमें यश की अभिलाषा, वैभवप्राप्ति की कामना आदि रही हुई है। शिष्य ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-गुरुदेव ! किस साधक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है और किस साधक का प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है? भगवान ने समाधान दिया-जिस साधक को जीव-अजीव का परिज्ञान है, प्रत्याख्यान किस उद्देश्य से किया जा रहा है, इसकी पूर्ण जानकारी है, उस साधक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है। जिस साधक को जीवअजीव का परिज्ञान नहीं है, जो अज्ञान की प्रधानता के कारण प्रत्याख्यान करता हुआ भी प्रत्याख्यान के मर्म को नहीं जानता, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। अतः ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला असंयत है, अविरत है और एकान्त बाल है। 13 113. एवं खलु से दुप्पच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सब्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणो नो सच्चं भासं भासइ, . मोसं भासं भासइ""" -भगवती 82 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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