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________________ की भावनाओं को स्पर्श कर पाप-मल से प्रात्मा को मुक्त करने का उपक्रम नहीं है। एक मन्त्र में इस प्रकार के भाव अवश्य ही व्यक्त हुए हैं - "सर्य नारायण, यक्षपति और देवताओं से मेरी प्रार्थना है—यक्ष विषयक तथा क्रोध से किये हए पापों से मेरी रक्षा करें। दिन और रात्रि में मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न से जो पाप हुए हों उन पापों को मैं अमृतयोनि सूर्य में होम करता हूँ। इसलिये वह उन पापों को नष्ट करें।"७६ कृष्णयजुर्वेद में एक मन्त्र है कि मेरे मन, वाणी और शरीर से जो भी दुराचरण हुना हो, मैं उसका विसर्जन करता हूँ। इस प्रकार वैदिक परम्परा में संध्या के द्वारा प्राचरित पापों के क्षय के लिये प्रभु से अभ्यर्थना की जाती है। यह एक दृष्टि से प्रतिक्रमण से ही मिलता-जुलता रूप है। पारसी धर्म में भी पाप को प्रकट करने का विधान है / खोरदेह अवस्ता पारसी धर्म का मुख्य ग्रन्थ है / उस ग्रन्थ में कहा गया है--मेरे मन में जो बुरे विचार समुत्पन्न हुए हों, वाणी से तुच्छ भापा का प्रयोग हुआ हो और शरीर से जो अकृत्य किये हों, जो भी मैंने दुष्कृत्य किये हैं, मैं उसके लिये पश्चात्ताप करता हूँ। अहंकार, मत व्यक्तियों की निन्दा, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, बुरी दृष्टि से निहारना, स्वच्छंदता, आलस्य, कानाफसी, पवित्रता का भंग, मिथ्या साक्ष्य, तस्करवृत्ति, व्यभिचार, जो भी पाप मुझसे ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से हुए हैं, उन दुष्कृत्यों को मैं सरल हृदय से प्रकट करता हूँ। उन सबसे अलग होकर पवित्र होता हूँ / ईसाई धर्म के प्रणेता महात्मा यीशु ने पाप को प्रकट करना आवश्यक माना है। पाप को छिपाने से वह बढ़ता है और प्रकट कर देने से वह घट जाता है या नष्ट हो जाता है / इस तरह पाप को प्रकट कर दोषों से मुक्त होने का उपाय जो बताया गया है वह प्रतिक्रमण से मिलता-जुलता है। प्रतिक्रमण जीवनशुद्धि का श्रेष्ठतम प्रकार है। किसी धर्म में उसकी विस्तार से चर्चा है तो किसी में समास से / पर यह सत्य है कि सभी ने उसको अावश्यक माना है। कायोत्सर्ग जैन साधनापद्धति में कायोत्सर्ग का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। कायोत्सर्ग को अनुयोगद्वार सूत्र में व्रणचिकित्सा कहा है। सतत सावधान रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण साधना में दोष लग जाते हैं, भलें हो जाती हैं। भूलों रूपी घावों को ठीक करने के लिये कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है / वह अतिचार रूपी घावों को ठीक कर देता है / एक वस्त्र बहुत ही मलीन हो गया है, उसे साफ करना है, वह एक बार में साफ नहीं होगा, उसे बार-बार साबुन लगाकर साफ किया जाता है। उसी प्रकार संयम रूपी बस्त्र पर भी अतिचारों का मैल लग जाता है, भूलों के दाग लग जाते हैं। उन दागों को प्रतिक्रमण के द्वारा स्वच्छ किया जाता है। प्रतिक्रमण में भी जो दाग नहीं मिटते, उन्हें कायोत्सर्ग के द्वारा हटाया जाता है। कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उस दोष को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है। कायोत्सर्ग क्यों किया जाता है ? 76. ओम् सूर्यश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्य: पापेभ्यो रक्षन्ताम् / यद् अह्ना यद् रात्या पापमकार्ष मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्ना रात्रिस्तदवलुम्पतु, यत् किञ्चिद् दुरितं मयि इदमहमापोऽमृत योनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा / " 77. कृष्णयजुर्वेद-दर्शन और चिन्तन : भाग 2, पृ० 192 से उद्धृत / 78. खोरदेह अक्स्ता , पृ० 5/23-24 [ 38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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