________________ बोधिचर्यावतार७४ नामक ग्रन्थ में प्राचार्य शान्तिदेव ने लिखा है-रात्रि में तीन बार और दिन में तीन बार त्रिस्कन्ध, पापदेशना-पुण्यानुमोदना और बोधिपरिणामना की आवृत्ति करनी चाहिये, जिससे अनजाने में हुई स्खलनाओं का शमन हो जाता है / आचार्य शान्तिदेव ने ही पापदेशना के प्रकृतिसावध और प्रज्ञप्तिसावद्यये दो प्रकार बताये हैं। प्रकृतिसावध वह है, जो स्वभाव से ही निन्दनीय है-जैसे हिंसा, असत्य, चोरी आदि और प्रज्ञप्तिसावध है-व्रत ग्रहण करने के पश्चात् उसका भंग करना---जैसे विकाल भोजन, परिग्रह आदि / बोधिचर्यावतार में प्राचार्य शान्तिदेव लिखते हैं---जो भी प्रकृतिसावध और प्रज्ञप्तिसावध पाप मुझ अबोध मूढ ने कमाये हैं, उन सब की देशना दुःख से घवराकर मैं प्रभु के सामने हाथ जोड़कर बारम्बार प्रणाम करता हूँ। हे नायको ! अपराध को अपराध के रूप में ग्रहण करो / मैं यह पाप फिर नहीं करूंगा। बौद्ध प्रवारणा, जैसा कि हमने पूर्व पंक्तियों में लिखा है, एकाकी नहीं होती। वह तो संघ के सान्निध्य में ही होती है / इस प्रवारणा में जो ज्येष्ठ भिक्षु आचारसंहिता का पाठ करता है और प्रत्येक नियम के पढ़ने के पश्चात् उपस्थित भिक्षों से वह इस बात की अपेक्षा करता है कि यदि किसी ने नियम का भंग किया है तो वह संघ के समक्ष उसे प्रकट कर दे / जैन परम्परा में गुरु के समक्ष या गीतार्थ के समक्ष पापों की आलोचना करने का विधान है। पर संघ के समक्ष पाप को प्रकट करने की परम्परा नहीं है। संघ के समक्ष पाप को प्रकट करने से प्रगीतार्थ व्यक्ति उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। उससे निन्दा की स्थिति भी बन सकती है। इसलिये जैनधर्म ने गीतार्थ के सामने पालोचना का विधान किया। संघ के समक्ष जो प्रवारणा है, उसकी तुलना वर्तमान में प्रचलित सामूहिक प्रतिक्रमण के साथ की जा सकती है / प्रतिक्रमण और संध्या वैदिक परम्परा में प्रतिक्रमण की तरह संध्या का विधान है। यह एक धार्मिक अनुष्ठान है जो प्रातः और सायं काल दोनों समय किया जाता है / संध्या का अर्थ है--सम्—उत्तम प्रकार से ध्य---ध्यान करना / अपने इष्टदेव का भक्ति-भावना से विभोर होकर श्रद्धा के साथ ध्यान करना, चिन्तन करना / संध्या का दूसरा अर्थ है-मिलन संयोग सम्बन्ध / उपासना के समय उपासक का परमेश्वर के साथ संयोग या सम्बन्ध होना / तीसरा अर्थ है-रात्रि और दिन की सन्धि-वेला में जो धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं, वह सन्ध्या है। इस संध्या में विष्णुमंत्र के द्वारा शरीर पर जल छिटक कर शरीर को पवित्र बनाने का उपक्रम किया जाता है / पृथ्वी माता की स्तुति से अभिमंत्रित कर प्रासन पर जल छिटक कर उसे पवित्र किया जाता है। उसके बाद सृष्टि के उत्पत्तिक्रम पर विचार होता है, फिर प्राणायाम का चक्र चलता है / अग्नि, वायु, आदित्य, बृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्व देवताओं की महिमा और गरिमा गाई गई है। सप्तव्याहृति इन्हीं देवों के लिये होती है / वैदिक महर्षियों ने जल की संस्तुति बहुत ही भावना के साथ की है / उन्होंने कहा—हे जल ! आप जीव मात्र के मध्य में विचरते हो, ब्रह्माण्ड रूपी गुहा में सब ओर आपकी गति है / तुम्हीं यज्ञ हो, वषट्कार हो, अप हो, ज्योति हो, रस हो और अमृत भी तुम्ही हो / 75 संध्या में तीन बार सूर्य को जल के द्वारा अर्घ्य दिया जाता है। प्रथम अर्घ्य में तीन राक्षसों की सवारी का, दूसरे में राक्षसों के शस्त्रों का और तीसरे में राक्षसों के नाश की कल्पना की जाती है। उसके पश्चात् गायत्रीमन्त्र पढ़ा जाता है। उसमें सूर्य से बुद्धि एवं स्फूति की प्रार्थना की जाती है। इन स्तुतियों में जल छिटकने की भी प्रथा है, जो बाह्याचार पर प्राधत है। अन्तर्जगत 74. बोधिचर्यावतार 5/98 75. ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु, गुहायां विश्वतोमुखः / त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार, पापो ज्योतिरसोऽमृतम् / / [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org