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________________ रूप स्वस्थान से हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम रूप पर स्थान में चला गया हो, उसका पुनः अपने-आप में लौट आना प्रतिक्रमण या पुनरावृत्ति है। 2. प्रतिचरणा -असंयम क्षेत्र से अलग-थलग रहकर अत्यन्त सावधान होकर विशुद्धता के साथ संयम का पालन करना प्रतिचरणा है, अर्थात संयम-साधना में अग्रसर होना प्रतिचरणा है। 3. प्रतिहरणा-साधक को साधना के पथ पर मुस्तैदी से अपने कदम बढ़ाते समय उसके पथ में अनेक प्रवार की बाधाएं आती हैं। कभी असंयम का आकर्षण उसे साधना से विचलित करना चाहता है तो कभी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। यदि साधक परिहरणा (प्रतिहरणा) न रखे तो वह पथभ्रष्ट हो सकता है / इसलिये वह प्रतिपल-प्रतिक्षण अशुभ योग, दुर्ध्यान और दुराचरणों का त्याग करता है। यही परिहरणा है। 4. वारणा--वारणा का अर्थ निषेध (रोकना) है। साधक विषय, कषायों से अपने आपको रोककर संयम-साधना करते हुए ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसलिये विषय-कपायों से निवृत्त होने के लिये प्रतित्रमण अर्थ में वारणा शब्द का प्रयोग हुआ है। 5. निवृत्ति.--जैन साधना में निवृत्ति का अत्यन्त महत्त्व रहा है। सतत सावधान रहने पर भी कभी प्रमाद के वश अशुभ योगों में उसकी प्रवृत्ति हो जाये तो उसे शीघ्र ही शुभ में आना चाहिये / अशुभ से निवृत्त होने के लिये ही यहाँ प्रतिक्रमण का पर्यायवाची शब्द निवत्ति आया है। 6. निन्दा-साधक अन्तनिरीक्षण करता रहता है। उसके जीवन में जो भी पापयुक्त प्रवृत्ति हुई हो, शुद्ध हृदय से उसे उन पापों की निन्दा करनी चाहिये। स्वनिन्दा जीवन को मांजने के लिए है। उससे पापों के प्रति मन में ग्लानि पैदा होती है और साधक यह दृढ़ निश्चय करता है कि जो पाप मैंने असावधानी से किये थे, वे अब भविष्य में नहीं करूंगा। इस प्रकार पापों की निन्दा करने के लिये प्रतिक्रमण के अर्थ में निन्दा शब्द का व्यवहार हुआ है। 7. गहीं-निन्दा अपने-आपकी की जाती है, उसके लिए साक्षी की आवश्यकता नहीं होती और गहीं गुरुजनों के समक्ष की जाती है। गुरुओं के समक्ष निःशल्य होकर अपने पापों को प्रकट कर देना बहत ही कठिन कार्य है / जिस साधक में आत्मबल नहीं होता, वह गर्दा नहीं कर सकता। गहरे में पापों के प्रति तीव्र पश्चात्ताप होता है। गहाँ पापरूपी विष को उतारने वाला गारुडी मन्त्र, है जिसके प्रयोग से साधक पाप से मुक्त हो जाता है। इसीलिये गहरे को प्रतिक्रमण का पर्यायवाची कहा है। 8. शुद्धि-शुद्धि का अर्थ निर्मलता है। जैसे वर्तन पर लगे हुए दाग को खटाई से साफ किया जाता है, सोने पर लगे हुए मैल को तपा कर शुद्ध किया जाता है, ऊनी वस्त्र के मैल को पेट्रोल से साफ किया जाता है, वैसे ही हृदय के मैल को प्रतिक्रमण द्वारा शुद्ध किया जाता है। इसीलिये उसे शुद्धि कहा है। आचार्य भद्रबाह ने साधक को उत्प्रेरित किया है कि वह प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर गहराई से अनुचिन्तन करे / इस दृष्टि से प्रतिक्रमण के चार भेद बनते हैं / 66. अत्यादरात् चरणा पडिचरणा अकार्यपरिहारः कार्यप्रवृत्तिश्च / —आवश्यकचूणि 67. असुभभाव-नियत्तणं नियत्ती। -आवश्यकचणि 68. पडिसिद्धाण करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमणं / असदहणे य तहा, विवरीयपरूवणाए अ॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1268 पकमण / [ 32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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