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________________ प्रमाद के कारण भूलें हुई हैं, उन भूलों का परिष्कार प्रतिक्रमण के द्वारा ही सम्भव है। पापरूपी रोग को नष्ट करने में प्रतिक्रमण राम-बाण औषध के सदृश है। प्रतिक्रमण जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है। प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है पुनः लौटना। हम अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर, अपनी स्वभाव-दशा से निकलकर विभाव-दशा में चले गये, अतः पुनः स्वभाव रूप सीमा में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से करवाये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति हेतु, किये गये पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है—शुभ योगों में से अशुभ योगों में गये हुए अपने-आप को पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है।' प्राचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यकत्ति में यही कहा है / 62 / गहीत नियमों और मर्यादा के अतिक्रमण से पुनः लौटना ही प्रतिक्रमण है। साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग–ये पांचों भयंकर दोष हैं। साधक प्रात: और संध्या के सुहावने समय में अपने जीवन का अन्तनिरीक्षण करता है, उस समय वह गहराई से चिन्तन करता है कि वह कहीं सम्यक्त्व के प्रशस्त पथ को छोड़कर मिथ्यात्व की कंटीली झाड़ियों में तो नहीं उलझा है ? व्रत के स्वरूप को विस्मृत कर अबत को तो ग्रहण नहीं किया है ? अप्रमत्तता के नन्दनवन में विहरण के स्थान पर प्रमाद की झुलसती मरुभूमि में तो विचरण नहीं किया है ? अकषाय के सुगन्धित सरसब्ज बाग को छोड़कर, कषाय के धधकते हुए पथ पर तो नहीं चला है ? मन, वचन, काया की प्रवृत्ति जो शुभ योग में लगनी चाहिये थी वह अशुभ योग में तो नहीं लगी? यदि मैं मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग में गया हूँ, तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अक्रषाय, अप्रमाद और शुभ योग में पाना चाहिये / इसी दृष्टि से प्रतिक्रमण किया जाता है।६३ आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि, आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, अावश्यक मलय गिरिवृत्ति प्रभृति ग्रन्थों में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में बहुत विस्तार के साथ विचार-चर्चाएं की गई हैं। उन्होंने प्रतिक्रमण शब्द 4 भी दिए हैं, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते हैं। यद्यपि पाठों का भाव एक ही है किन्तु ये शब्द प्रतिक्रमण के सम्पूर्ण अर्थ को समझने में सहायक हैं। वे इस प्रकार हैं 1. प्रतिक्रमण 65-- इस शब्द में "प्रति" उपसर्ग है और "ऋमु" धातु है। प्रति का तात्पर्य हैप्रतिकूल और क्रमु का तात्पर्य है—पदनिक्षेप / जिन प्रवृत्तियों से साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र 61. प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अयमर्थ:-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् / -योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, स्वोपज्ञवृत्ति 62. स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः / तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते / 63. (क) प्रति प्रतिवर्तनं वा, शुभेषु योगेषु मोक्षफलदेषु / निःशल्यस्य यतेर्यत, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम / / (ख) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1250 64. पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा बारणा नियत्ती य / निन्दा गरिहा सोही, पडिकमणं अटठहा होइ। ----आवश्यकनियुक्ति 1233 65. पडिक्कमणं पुनरावृत्तिः / —आवश्यकचूणि [ 31 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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