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________________ षष्ठाभ्ययन : प्रत्याख्यान] [121 विवेचन—यह प्रत्याख्यानपूर्ति का सूत्र है। कोई भी प्रत्याख्यान किया हो, उसकी समाप्ति प्रस्तुत सूत्र के द्वारा करनी चाहिये। ऊपर मूल पाठ में 'नमुक्कारसहियं' नमस्कारिका का सूचक सामान्य शब्द है / इसके स्थान में जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रखा हो, उसका नाम लेना चाहिये। जैसे कि पौरुषी ली हो तो 'पौरुसीपच्चक्खाणं कयं' ऐसा कहना चाहिये। प्रत्याख्यान पालने के छह अंग हैं(१) फासियं (स्पृष्ट अथवा स्पर्शित) गुरुदेव से या स्वयं विधिपूर्वक प्रत्याख्यान लेना। (2) पालियं (पालित)-प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में लाकर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना। (3) सोहियं (शोधित)-कोई दूषण लग जाए तो सहसा उसकी शुद्धि करना / अथवा 'सोहिय' का संस्कृत रूप शोभित भी होता हैं / इस दशा में अर्थ होगा गुरुजनों को, साथियों को अथवा अतिथि जनों को भोजन देकर स्वयं भोजन करना। (4) तोरियं (तीरित)-लिए हुए प्रत्याख्यान का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहरकर भोजन करना। (5) किट्टियं (कीर्तित)-भोजन प्रारंभ करने से पहले लिए हुए प्रत्याख्यान को विचार कर उत्कीर्तन-पूर्वक कहना कि मैंने अमुक प्रत्याख्यान अमुक रूप से ग्रहण किया था, वह भली-भांति पूर्ण हो गया है। (6) पाराहियं (पाराधित)'--सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार प्रत्याख्यान की आराधना करना। OD 1. आचार्य जिनदास ने 'पाराधित' के स्थान पर 'अनुपालित' कहा है / अनुपालित का अर्थ किया है-तीर्थकर देव के वचनों का बार-बार स्मरण करते हुए प्रत्याख्यान का पालन करना---'अनुपालियं नाम अनुस्मृत्य अनुस्मत्य तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालियस्वं / --प्रावश्यकचूणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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